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समर-यात्रा
 

ने विशंभर के फ़ोटो को अभिमान की आँखों से देखकर कहा-रानीगंज में किसानों की विराट् सभा थी। वहीं पकड़ा है।

आनन्द-मैंने तो पहले ही कहा था, दो साल के लिए जायँगे । ज़िन्दगी खराब कर डाली।

रूपमणि ने फटकार बताई---क्या डिग्री ले लेने ही से आदमी का जीवन सफल हो जाता है ? सारा अनुभव पुस्तकों ही में भरा हुआ है ? मैं समझती हूँ, संसार और मानवी चरित्र का जितना अनुभव विशंभर को दो सालों में हो जायगा, उतना दर्शन और कानून की पोथियों से तुम्हें दो सौ वर्षों में भी न होगा। अगर शिक्षा का उद्देश्य चरित्रबल मानो तो राष्ट्र-संग्राम में मनोबल के जितने साधन हैं, पेट के संग्राम में कभी हो ही नहीं सकते। तुम यह कह सकते हो कि हमारे लिए पेट की चिन्ता ही बहुत है, हमसे और कुछ हो ही नहीं सकता। हममें न उतना साहस है, न बल, न धैर्य न संगठन, तो मैं मान जाऊँगी ; लेकिन जाति-हित के लिए प्राण देनेवालों को बेवकूफ़ बनाना मुझसे नहीं सहा जा सकता। विशंभर के इशारे पर आज लाखों आदमी सीना खोलकर खड़े हो जायँगे, तुममें है जनता के सामने खड़े होने का हौसला ? जिन लोगों ने तुम्हें पैरों के नीचे कुचल रखा है, जो तुम्हें कुत्तों से भी नीच समझते हैं, उन्हीं की गुलामी करने के लिए तुम डिग्रियों पर जान दे रहे हो। तुम इसे अपने लिए गौरव की बात समझो, मैं नहीं समझती।

आनन्द तिलमिला उठा । बोला---तुम तो पक्की क्रांति-कारिणी हो गई इस वक्त।

रूपमणि ने उसी आवेश में कहा---अगर सच्ची-खरी बातों में तुम्हें क्रांति की गन्ध मिले, तो मेरा दोष नहीं ।

'आज विशंभर को बधाई देने के लिए जलसा ज़रूर होगा। क्या तुम उसमें जाओगी ?'

रूपमणि ने उग्र भाव से कहा---ज़रूर जाऊँगी, बोलूँगी भी और कल रानीगंज भी चली जाऊँगी ? विशंभर ने जो दीपक जलाया है, वह मेरे जीते जी बुझने न पायेगा।