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आहुति
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ज़बान तक न खोली जाय ? तुम तो समाज-शास्त्र के पंडित हो। क्या किसी अर्थ में भी यह व्यवस्था आदर्श कही जा सकती है ? सभ्यता के तीन मुख्य सिद्धान्तों का ऐसी दशा में किसी न्यूनतम मात्रा में भी व्यवहार हो सकता है।

आनन्द ने गर्म होकर कहा---शिक्षा और सम्पत्ति का प्रभुत्व हमेशा रहा है और हमेशा रहेगा । हो, उसका रूप भले ही बदल जाय ।

रूपमणि ने आवेश से कहा---अगर स्वराज्य आने पर भी सम्पत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूँगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अँग्रेज़ी महाजनों की धन-लोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। जिन बुराइयों को दूर करने के लिए आज हम प्राणों को हथेली पर लिये हुए हैं, उन्हीं बुराइयों को क्या प्रजा इसलिए सिर चढ़ायेगी कि वे विदेशी नहीं,स्वदेशी हैं ? कम-से-कम मेरे लिए तो स्वराज्य का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविन्द बैठ जायँ । मैं समाज की ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूँ, जहाँ कम-से-कम विषमता को आश्रय मिल सके।

आनन्द---यह तुम्हारी निज की कल्पना होगी !

रूपमणि---तुमने अभी इस आन्दोलन का साहित्य पढ़ा ही नहीं।

आनन्द---न पढ़ा है, न पढ़ना चाहता हूँ।

रूपमणि---इससे राष्ट्र की कोई बड़ी हानि न होगी।

आनन्द---तुम तो जैसे वह रहीं ही नहीं। बिलकुल कायापलट हो गई।

सहसा डाकिये ने कांग्रेस-बुलेटिन लाकर मेज़ पर रख दिया। रूपमणि ने अधीर होकर उसे खोला; पहले शीर्षक पर नज़र पड़ते ही उसकी आँखों में जैसे नशा छा गया । अज्ञात रूप से गर्दन तन गई और चेहरा एक अलौकिक तेज से दमक उठा।

उसने आवेश में खड़ी होकर कहा---विशंभर पकड़ लिये गये और दो साल की सज़ा हो गई !

आनन्द ने विरक्त मन से पूछा---किस मुआमले में सजा हुई ? रूपमणि