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सप्तसरोज
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और जुर्माना देते-देते किसानोंके नाकमे दम हो जाता है। आप जानते हैं इसीसे और कहीं ३०) की नौकरी छोडकर भी जमींदारों की कारिन्दगिरी लोग ८), १०) में स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि ८), १०) का कारिन्दा सालमें ८००), १०००) ऊपरसे कमाता है। खेद तो यह है कि जमींदार लोगोंमें शिक्षाकी उन्नति के साथ-साथ शहरमें रहनेकी प्रथा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। मालूम नहीं आगे चलकर इन बेचारोंकी क्या गति होगी?

शर्माजीको बाबूलालकी बातें विचारपूर्ण मालूम हुईं। पर वह सुशिक्षित मनुष्य थे। किसी बातको चाहे वह कितनी ही यथार्थ क्यों न हो, बिना तर्कके ग्रहण नहीं कर सकते थे। बाबूलालको वह सामान्य बुद्धिका आदमी समझते आये थे। एकाएक परिवर्तन हो जाना असम्भव था। इतना ही नहीं इन बातोंका उल्टा प्रभाव यह हुआ कि वह बाबूलालसे चिढ़ गये। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि बाबूलाल अपने सुप्रबन्ध के अभिमानमें मुझे तुच्छ समझता है, मुझे ज्ञान सिखानेकी चेष्टा करता है। सदैव दूसरोंको सद्‌ज्ञान सिखाने और सम्मान दिखानेका प्रयत्न किया हो वह बाबूलाल जैसे आदमीके सामने कैसे सिर झुकाता? अतएव जब वहांसे चले तो शर्माजीकी तर्कशक्ति बाबूलालकी बातोंकी आलोचना कर रही थी। मैं गाँवमें क्योंकर रहूँ? क्या जीवनकी सारी अभिलाषाओंपर पानी फेर दूँ? गँवारोंके साथ बैठे बैठे गप्पे लड़ाया करूँ। घड़ी आध घड़ी मनोरंजनके लिये उनसे बातचीत करना