बाबूलाल-आपका कहना यथार्थ ही है। पर आप जैसे महानुभाव इन बातोंको मनमे लावेगे तो यह काम कौन करेगा।
शर्माजी—वही करेंगे जो 'आनरेबल' बने फिरते हैं या नगरके पिता कहलाते हैं। मैं तो अब देशाटन करूँगा, संसारकी हवा खाऊँगा।
बाबूलाल—समझ गये कि यह महाशय इस समय आपेमें नहीं है। विषय बदलकर पूछा, यह तो बताइये, आपने देहातको कैसा पसन्द किया? आप तो पहले ही पहल यहा आये हैं।
शर्माजी—बस, यही कि बैठे बैठे जी घबराता है। हां, कुछ नये अनुभव अवश्य प्राप्त हुए हैं। कुछ भ्रम दूर हो गये। पहले समझता था कि किसान बडे दीन-दुखी होते हैं। अब मालूम हुआ कि यह लोग बडे मुटमरदी, अनुदार और दुष्ट हैं। सीधे बात न सुनेगे, पर कड़ाईसे जो काम चाहे करा लो। बस निरे पशु हैं, और तो और, लगानके लिये भी उनके सिरपर सवार रहने की जरूरत है। टल जाओ तो कौड़ी वसूल न हो। नालिश कीजिये, बेदखली जारी कीजिये, कुर्की कराइये, यह सब मेरे लिए नई बात हैं। मुझे अबतक इनसे जो सहानुभूति थी वह अब नहीं है। पत्रों में उनकी हीनावस्थाके जो मरसिये गाये जाते हैं वह सर्वथा कल्पित हैं। क्यों, आप का क्या विचार है?
बाबूलालने सोचकर जवाब दिया। मुझे वो अबतक कोई शिकायत नहीं हुई। मेरा अनुभव यह है कि यह लोग बड़े शीलवान नम्र और कृतज्ञ होते हैैं। परन्तु उनके ये गुण प्रकट में