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सप्तसरोज
८६
 

चारों ओर से दुर्गन्ध उठ रही थी। किसीके दरवाजेपर गोबर सड़ रहा था, तो कहीं कीचड़ और कूड़ेका ही ढेर वायुको विषैली बना रहा था। घरोंके पास ही घूरपर खादके लिये गोबर फेंका हुआ था जिससे गाँवमे गन्दगी फैलनेके साथ-साथ खादका सार अंश धूप और हवाके साथ गायब होता था। गाँवके मकान तथा रास्ते बेसिलसिले, बेढंगे तथा टूटे फूटे थे। मोरियों के गन्दे पानी निकास का कोई प्रबन्ध न होने की वजहसे दुर्गन्धसे दम घुटता था। शर्माजीने नाक पर रूमाल लगा ली। सास रोककर तेजीसे चलने लगे। बहुत जी घबराया तो दौड़े और हांफते हुए एक सघन नीमके वृक्षकी छायामें आकर खड़े हो गए। अभी अच्छी तरह सास भी न लेने पाये थे कि बाबूलाल ने आकर पालागन किया और पूछा, क्या कोई सांड़ था?

शर्माजी सास खींचकर बोले, साड़से अधिक भयङ्कर विषैली हवा थी। ओह! यह यह लोग ऐसी गन्दगीमें कैसे रहते हैं?

बाबूलाल—रहते क्या हैं किसी तरह जीवनके दिन पूरे करते हैं।

शर्माजी—पर यह स्थान तो साफ है?

बाबूलाल—जी हां, इस तरफ गावके किनारेतक साफ जगह मिलेगी।

शर्माजी—तो उपर इतना मैला क्यों है?

बाबूलाल—गुस्ताखी माफ हो तो कहूँ।

शर्माजी हँसकर बोले,प्राणदान मांगा होता। सच बताओ,क्या बात है। एक तरफ ऐसी स्वच्छता और दूसरी तरफ वह गन्दगी।