अथवा ललित सङ्गीतमें जैसे कोई बेसुरी तान कानों को अप्रिय सी है, उसी तरह शर्माजी को सहृदयतापूर्ण दृष्टि में ये मँडराते सिपाही दिखाई दिये। उन्होंने निकट जाकर एक सिपाही को लाया। उन्हें देखते ही सब के सब पगड़िया सम्भालते दौड़े।
शर्माजीने पूछा, तुम लोग यहा इस तरह क्यों बैठे हो?
एक सिपाहीने उत्तर दिया, सरकार, हम लोग असामियों के सरपर सवार न रहे तो एक कौड़ी वसूल न हो। अनाज घरमें आने की देर है, फिर तो वह सीधे बात भी न करेंगे—बड़े सर लोग हैं। हम लोग रातकी रात बैठे रहते हैं। इतनेपर भी जहाँ आँख झपकी, ढेर गायब हुआ।
शर्माजीने पूछा, तुम लोग यहां कब तक रहोगे? एक सिपाही ने उत्तर दिया, हुजूर बनियों को बुलाकर अपने सामने अनाज तौलाते हैं। जो कुछ मिलता है उसमे से लगान काटकर बाकी असामीको दे देते हैं।
शर्माजी सोचने लगे, जब यह हाल है तो इन किसानों की अवस्था क्यों न खराब हो? यह बेचारे अपने धनके मालिक नहीं है। उसे अपने नाम रखकर अच्छे अवसरपर नहीं बेच सकते। इस कष्ट का निवारण कैसे किया जाय? यदि मैं इस समय इनके साथ रियायत कर दूँ तो लगान कैसे वसूल होगा।
दस विषयपर विचार करते हुए वह वहां से चल दिये। सिपाहियों ने साथ चलना चाहा, पर उन्होंने मना कर दिया। भीड़ भाड़ से उन्हें उलझन होतो थी। अकले ही गांवमें घूमने लगे। छोटा-सा गांव था। पर सफाईका कहीं नाम न था।