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सप्तसरोज
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इस सम्बन्ध मे अपने मन को इस प्रकार समझा लेते थे कि घोड़ा भूखों नहीं मर सकता, घास का दाम दे दिया जाता है, यदि इसपर भी यह हाय हाय होती है तो हुआ करे। शर्माजीको यह कभी नहीं सूझी कि जरा चमारों से पूछ लें कि घास का दाम मिलता है वा नहीं। यह सब व्यवहार देख देखकर उन्हे अनुभव होता जाता था कि देहाती बड़ी मुटमरदी, बदमाश हैं, इनके विषय में मुख्तार साहब जो कुछ कहते हैं वह यथार्थ है।पन्नों और व्याख्यानोंमें उनकी अवस्थापर व्यर्थ गुलगपाडा मचाया जाता है, यह लोग इसी बर्तावके योग्य हैं। जो इनकी दीनता और दरिद्रता का राग अलापते हैं वह सच्ची अवस्थासे परिचित नहीं हैं। एक दिन शर्माजी महात्माओं की सङ्गतिसे उकता कर सैरको निकले। घूमते-फिरते खलिहानोंकी तरफ निकल गये। वहां आमके वृक्षों के नीचे किसानोंकी गाढ़ी कमाईके सुनहरे ढेर लगे हुए थे। चारो ओर भूसेकी आँधी-सी उड़ रही थी। बैल अनाजका एक गाल खा लेते थे। यह सब उन्हीकी कमाई है, उनके मुँहमें आज जाबी देना बड़ी कृतघ्नता है। गांवके बढ़ई,चमार, धोबी और कुम्हार अपना वार्षिक कर उगाहने के लिए जमा थे। एक ओर नट ढोल बजा बजाकर अपने करतब दिखा रहा था। कवीश्वर महाराज की अतुल काव्य शक्ति आ उमंगपर थी।

शर्माजी इस दृश्य से बहुत प्रसन्न हुए। परन्तु इस उल्लास से उन्हें अपने कई सिपाही दिखाई दिये, जो लट्ठ लिये अनाजके ढ़ेर के पास जमा थे। पुष्प-वाटिका में ठूठ जैसा,भदा दिखाई देता