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उपदेश
 

शर्माजीने कुछ उत्तर न दिया। बहलीपर जा बैठे। कई बेगार हाजिर थे। उन्होंने असबाब उठाया। फागुनका महीना था। आमोंके बौरसे महकती हुई मन्द-मन्द वायु चल रही थी। कभी- कभी कोयलकी सुरीलीतान सुनाई दे जाती थी। खलिहानोंमे किसान आनन्दसे उन्मत्त हो होकर फाग गा रहे थे। लेकिन शर्माजीको अपनी फटकारपर ऐसी ग्लानि थी कि इन चित्ताकर्षक वस्तुओंका उन्हें कुछ ध्यान ही न हुआ।

थोड़ी देर बाद वे ग्राममें आ पहुचे। शर्माजीके स्वर्गवासी पिता एक रसिक पुरुष थे। एक छोटा सा बाग, छोटा-सा पक्का कुवां, बगला, शिवजीका मन्दिर यह सब उन्हींके कीर्ति चिन्ह थे। वह गर्मीके दिनोंमें यहीं रहा करते थे। पर शर्जीमाजीके यहां आनेका यह पहला ही अवसर था। बेगारियोने चारों तरफ सफाई कर रक्खी थी। शर्माजी बहलीसे उतरकर सीधे बगले में चले गये, सैकड़ों असामी दर्शन करने आये थे, पर वह उनसे कछ न बोले।

घडी रात जाते-जाते शर्माजीके नौकर टमटम लिये आ पहुँचे। कहार, साईम और रसोइया महाराज तीनोंने असामियोंको इस दृष्टिसे देसा मानो वह उनके नौकर हैं। साईस ने एक मोटे ताजे किसान से कहा, घोड़ेको सोल दो।

किसान बेचारा डरता डरता घोड़ेके निकट गया। घोड़ेने अनजान आदमीको देखते ही तेवर बदलकर कनौतियां खड़ी की। किसान डरकर लौट आया। तब साईसने उसे ढकेलकर कहा, बस,—निरे वछिया के गऊ ही हो। हल जोतनेसे क्या