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सप्तसरोज
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शर्माजीने भी चलने की ठानी। लेकिन "सोसल सर्विस लीग” के वे मन्त्री ठहरे। ऐसे अवसर पर निकल भागने में बदनामी का भय था। बहाना ढूंढा। "लीग" में प्रायः सभी लोग कालेजमें पढते थे। उन्हें बुलाकर इन शब्दों में अपना अभिप्राय प्रकट किया। मित्रवृन्द! आप अपनी जाति के दीपक हैं। आप ही इन मरणोन्मुख जाति के आशास्थल हैं। आज हमपर विपत्तिकी घटाएं छाई हुई हैं। ऐसी अवस्थामें हमारी आखें आपकी ओर न उठे तो किसकी ओर उठेगी। मित्रो, इस जीवन में देश-सेवा के अवसर बड़े सौभाग्य से मिला करते हैं। कौन जानता है कि परमात्माने तुम्हारी परीक्षाके लिये ही यह वज्र प्रहार किया हो! जनता को दिखा दो कि तुम वीरोंका हृदय रखते हो, जो कितने ही संकट पड़नेपर भी विचलित नहीं होता। हाँ, दिखा दो कि वह वीर प्रसविनि पवित्र भूमि, जिसने हरिश्चन्द्र और भरतको उत्पन्न किया, आज भी शून्यगर्भा नहीं है। जिस जातिके युवकोंमे अपने पीड़ित भाइयोंके प्रति ऐसी करुणा और यह अटल प्रेम है वह संसार में सदैव यश-कीर्तिकी भागी रहेगी। आइये, हम कमर बांधकर कर्मक्षेत्रमें उतर पड़ें। इसमें सन्देह नहीं कि काम कठिन है, राह बीहड़ है, आपको अपने आमोद-प्रमोद, अपने हाकी, टेनिस, अपने मिल और मिल्टनको छोडना पड़ेगा। तुम जरा हिचकोगे, हटोगे और मुंह फेर लोगे, परन्तु भाइयो। जातीय सेवा का स्वर्गीय आनन्द सहजमें ही नहीं मिल सकता। हमारा पुरुषत्व, हमारा मनोबल, हमारा शरीर, यदि जातिके काम न आवे तो वह व्यर्थ है। मेरी प्रबल आकांक्षा थी कि