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सप्तसरोज
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नहीं की वरन् उन्हें अपने पिताकी यह ठकुरसुहातीकी बात असह्य-सी प्रतीत हुई। पर पण्डित जी की बाते सुनीं तो मनकी मैल मिट गयी। पण्डितजीकी ओर उड़ती हुई दृष्टिसे देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्वने अब लज्जाके सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले, यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिये। मैं धर्मकी बेड़ी में जकड़ा हुआ था। नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आना होगी, वह मेरे सिर-माथेपर।

अलोपीदीनने विनीत भावसे कहा, नदीके तटपर आपने मेरी प्रार्थना न स्वीकार की थी, किन्तु आज स्वीकार करनी पड़ेगी।

वंशीधर बोले, मैं किस योग्य हूँ, किन्तु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है उसमें त्रुटि न होगी।

अलोपीदीनने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधरके सामने रखकर बोले, इस पदको स्वीकार कीजिये और अपने हस्ताक्षर कर दीजिये। मैं ब्राह्मण हूँ, जबतक यह सवाल पूरा न कीजियेगा, द्वारसे न हटूँगा।

मुंशी वंशीधरने उस कागजको पढ़ा तो कृतज्ञतासे आंखोंमें आंसू भर आये। पण्डित अलोपीदीनने उन्हें अपनी सारी जायदादका स्थायी मैनेजर नियत किया था। छ हजार वार्षिक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिये घोड़े, रहनेको बंगला नौकर-चाकर मुफ्त। कम्पित स्वरसे बोले, पण्डितजी मुझपे इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपको हम उदारताकी प्रशंसा कर सकूँ। किन्तु मैं ऐसे उच्चपदके योग्य नहीं हूँ।