साथ, हाथोंमे हथकडिया, हृदयमे ग्लानि और क्षोभ भरे,लज्जा से गर्दन झुकाये अदालत की तरफ चले तो सारे शहरमें हलचल मच गई। मेलोंमे कदाचित् आँखे इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड़ के मारे छत और दीवारमें कोई भेद न रहा।
किन्तु अदालत मे पहुँचनेकी देर थी। पण्डित अलोपीदीन इस अगाध वनके सिंह थे। अधिकारीवर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोलके गुलाम थे। उन्हें देखते ही लोग चारों तरफसे दौड़े। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिये नहीं कि अलोपीदीन ने क्यों यह कर्म किया, बल्कि इसलिये कि वह कानूनके पंजे में कैसे आये? ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्यसाधन करनेवाला वन और अनन्य वाचालता हो वह क्यों कानून के पंजेमें आवे। प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था। बड़ी तत्परतासे इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलोंकी एक सेना तैयार की गई। न्यायके मैदानमें धर्म और धनमें युद्ध ठन गया। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्यके सिवा न कोई बल था न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किन्तु लोभ से डांवाडोल।
यहांतक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओरसे कुछ खिंचा हुआ देख पड़ता था, वह न्यायका दरबार था,परन्तु उसके कर्मचारियोंपर पक्षपातका नशा छाया हुआ था। किन्तु पक्षपात और न्याय का क्या मेल, जहां पक्षपात हो, वहा न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मुकद्दमा शीघ्र ही समाप्त हो गया।