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नमकका दरोगा
 

जाडे के दिन थे और रात का समय। नमक सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आये अभी छ: महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोडे समय मे ही उन्होंने अपनी कार्य-कुशलता और उत्तम आचार से अफसरो को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उनपर बहुत विश्वास करने लगे। नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी उसपर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगा जी किवाड बन्द किये मीठी नींद सोते थे। अचानक आस खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाड़ियों की गड़गडाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनायी दिया। उठ बैठे। इतनी रात गये गाडिया क्यों नदी के पार जाती है? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। परदी पहनी, तमचा जेब में रखा और बात-की बातम घोडा बढाते हुए पुलपर आ पहुँचे। गाडियों को एक लम्बी कतार पुलके पार जाते देखी। डाटकर पूछा, किसकी गाडिया हैं ?

थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों मे कुछ कानाफूसी हुई,तब आगे वाले ने कहा-पण्डित अलोपीदीन की।

"कौन पण्डित अलोपीदीन?"

"दाताग जके।"

मुंशी वंशीधर चोंके। पण्डित अलोपीदीन इस इलाके सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपये का लेन देन करते थे, इधर छोटे से बड़े कौन ऐसे थे जो उनके ऋणी न हों। व्यापार भी बड़ा लम्बा चौडा था। बड़े चलते-पुरजे आदमी थे। अंगरेज