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सप्तसरोज
५४
 


डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरीके घर थे तो चैनकी वंशी बजती थी। छठे छमासे कभी बहलीमें जोते जाते, तब खूब उछलते कूदते और कोसोंतक दौड़ते जाते थे। वहा बैलराजको रातिब, साफ पानी, दली हुई अरहरकी दाल और भूसेके साथ खली और यही नहीं,कभी-कभी घीका स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सवेरे एक आदमी खरहरे करता, पोंछता और सुहलाता था। कहाँ वह सुख-चैन, कहा यह आठों पहर की खपन महीने भरमें ही वह पिस-सा गया। इक्केका जुवा देखते ही उसका लोहू सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। हड्डियां निकल आई थीं, पर था वह पानीदार, मारकी सहन न थी।

एक दिन चौथे खेप मे साहुजीने दूना बोझ लादा। दिन भरका थका जानवर, पैर न उठते थे। उसपर साहुजी कोड़े फटकारने लगे। बस, फिर क्या था, बैल कलेजा तोड़कर चला। वह कुछ दूर दौड़ा और चाहा कि जरा दम ले लू पर साहुजीको जल्द घर पहुँचने की फिक्र थी। अतएव उन्होंने कई कोड़े बडी निर्दयतासे फटकारे। बैलने एक बार फिर जोर लगाया। पर अबकी बार शक्तिने जवाब दिया। वह धरतीपर गिर पडा और ऐसा गिरा कि फिर न उठा। साहुजीने बहत पीटा, टांग पकड़ कर खींचा, नथुनोमें लकड़ी ठुँस दी। पर कहीं मृतक भी उठ सकता है? तब साहुजीको कुछ शङ्का हुई। उन्होंने बैलको गौरसे देखा, खोलकर अलग किया और सोचने लगे कि गाडी कैसे घर पहुँचे। वे बहुत चीखे-चिल्लाये, पर देहातका रास्ता