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सप्तसरोज
५०
 


अलगू चौधरी बोले, शेख जुम्मन। हम और तुम पुराने दोस्त हैं। जब काम पड़ा, तुमने हमारी मदद की है और हम भी जो कुछ बन पडा, तुम्हारी सेवा करते रहे हैं। मगर इस समय तुम और बूढी खाला दोनों हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पांचो से जो कुछ अर्ज करना हो, करो।

जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाजी मेरी है। अलगू यह सब दिखावे की बाते कर रहा है, अतएव शांत-चित्त होकर, बोले, पंचो! तीन साल हुए खालाजान ने अपनी जायदाद में नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें हीनहयात, खाना-कपडा देना। कबूल किया था। खुदा गवाह है कि आजतक कोई तकलीफ नहीं दी। मैं उन्हे अपनी मां के समान, समझता हूँ उनकी खिदमत करना मेरा फर्ज है, मगर औरतों में जरा अन-बन रहती है। इसमें मेरा क्या वश है? खालाजान मुझसे माहवार खर्च अलग मांगती हैं। जायदाद जितनी है वह पंचों में छिपी नहीं है। उसमें इतना मुनाफा नहीं होता कि मैं माहवार इसके अलावा हिब्बानामेमें माहवार खर्च का कोई जिक्र नही, नहीं तो मैं भूलकर भी इस झमेले में न पड़ता। बस, मुझे यहा कहना है। आइन्द पंचों को अख्तियार है जो फैसल चाहे करें।

अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पडता था, अतएव पूरा कानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से जिरह करनी आरम्भ की। एक-एक प्रश्न जुम्मनके हृदय पर हथौडी की चोट की तरह था। रामधन मिश्र इन प्रश्नों पर मुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित,थे कि अलगूको क्या हो गया है? अभी यह मेरे साथ बैठा हुआ