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सप्तसरोज
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का कुछ फल न हुआ तो वह यह मानकर सन्तोषकर लेगा कि विद्योपार्जन में मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी तो कैसे आती?

मगर जुमराती शेख स्वंय आशीर्वादके लायक न थे। उन्हें अपने सोटेपर अधिक भरोसा था और इसी सोटेके प्रतापसे आज आसपास के गावों में जुम्मनकी पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रिहननामे या बैनामेपर कचहरीका मुहर्रिर भी कलम उठा सकता था। हल्केका डाकिया, कांस्टेबिल और तहसीलका, चपरासी——सब उनकी कृपाकी आकांक्षा करते थे। अतएव अलगूका मान उनके धनके कारण था तो जुम्मन शेख अपनी अमोल विद्यासे ही सबके आदर-पात्र बने थे।

जुम्मन शेखको एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उनके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी। परन्तु उसके निकट सम्बन्धियों में कोई न था। जुम्मनने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम चढ़वा ली थी। जबतक दान-पत्र की रजिस्टरी न हुई थी तबतक खाला जानका खूब आदरसत्कार किया गया, उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गये। हलुवे पुलावकी वर्षा सी की गई, पर रजिस्टरीकी मुहरने इन खातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कडवी बातों से कुछ तेज तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मम शेख भी निठुर हो गये। अब बेचारी खाला-जानको प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं।