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सज्जनताका दण्ड
 


कोई वश न था। इञ्जिनियर साहबने एक लम्बी सांस खींची। सारी आशाएं मिट्टी मे मिल गयीं। क्या सोचते थे, क्या हो गया। विकल होकर कमरे में टहलने लगे।

उन्होंने जरा देर पीछे पत्रको उठा लिया और अन्दर चले। विचारा था कि यह पत्र रामा को सुनावे, मगर फिर ख्याल आया कि यहाँ सहानुभूति की कोई आशा नहीं। क्यों अपनी निर्बलता दिखाऊं? क्यों मूर्ख बनूं? वह बिना तानोंके बात न करेगी। यह सोचकर वे आंगनसे लौट गये।

सरदार साहब स्वभावके बड़े दयालु थे और कोमल हृदय आपत्तियों में स्थिर नहीं रह सकता। वे दुःख और ग्लानिसे भरे हुए सोच रहे थे कि मैंने ऐसे कौनसे बुरे कर्म किये हैं जिनका मुझे यह फल मिल रहा है। बरसों की दौड़ धूप के बाद जो कार्य सिद्ध हुआ था वह क्षणमात्रमें नष्ट हो गया। अब वह मेरी सामर्थ्य से बाहर है। मैं उसे नहीं सम्हाल सकता। चारों ओर अन्धकार है। कहीं आशा का प्रकाश नहीं। कोई मेरा सहायक नहीं। उनके नेत्र सजल हो गये।

सामने मेजपर ठेकेदारों के बिल रक्खे हुए थे। वे कई सप्ताहों से योंही पड़े थे। सरदार साहबने उन्हें खोलकर भी न देखा था आज इस आत्मिक ग्लानि और नैराश्यकी अवस्थामें उन्होंने इन बिलों को सतृष्ण आंखों से देखा। जरा से इशारे पर ये सारी कठिनाइयां दूर हो सकती हैं। चपरासी और क्लर्क केवल मेरी सम्मति के सहारे सब कुछ कर लेंगे। मुझे जबान हिलाने की भी जरूरत नहीं। न मुझे लज्जित ही होना पड़ेगा। इन विचारोंका इतना