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सप्तसरोज
३६
 


आत्मा का भय, यहाँँ तक कि वहाँ आत्माकी छिपी हुई चुटकियों भी गुजर नहीं है और कहांँ तक कहे इसकी ओर बदनामी आँख भी नहीं उठा सकती। यह वह बलिदान है जो हत्या होते हुए भी धर्म का एक अंश है। ऐसी अवस्था मे यदि सरदार शिव सिंह अपने उज्ज्वल चरित्र को इस धब्बे से साफ रखते थे और उसपर अभिमान करते थे तो वे क्षमाके पात्र थे।

मार्च का महीना बीत रहा था। चीफ इन्जिनियर साहब जिलेमें मुआयना करने आ रहे थे। मगर अभीतक इमारतों का काम अपूर्ण था। सड़कें खराब हो रही थीं, ठेकेदारों ने मिट्टी और कंकड़ भी नहीं जमा किये थे।

सरदार साहब रोज ठेकेदारों को ताकीद करते थे, मगर इसका कुछ फल न होता था।

एक दिन उन्होंने सबको बुलाया। वे कहने लगे, तुम लोग क्या यही चाहते हो कि मैं इस जिलेसे बदनाम होकर जाऊ? मैंने तुम्हारे साथ कोई बुरा सलूक नहीं किया। मैं चाहता तो आपसे काम छीनकर खुद करा लेता, मगर मैंने आपको हानि पहुँचाना उचित न समझा। उसकी मुझे याद सदा मिल रही है। खैर।

ठेकेदार लोग यहांँ सें चले तो होगस्टर गोपाल। दास बोले, अव आटे-दालका भाव मालूम हो जायगा।

शहबाज़खां ने कहा, किसी तरह इसका जनाजा निकले तो यहाँ से....

सेठ चुन्नीलालने फरमाया-इन्जिनियर से मेरी जान-पहचान है। मैं उनके साथ काम कर चुका हूँ। वह इन्हें खूब लथेड़ेगा।