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सप्तसरोज
२०
 


दिनोंतक बेकार पडी रहने से निर्बल-सी हो गई थी, अब कुछ सजीव-सी होने लगी थी।

पंडितजी यह मानते थे कि गोदावरीने सौतको घर लाने में बडा भारी त्याग किया है। उसका यह त्याग अलौकिक कहा जा सकता है, परन्तु उसके त्याग का भार जो कुछ है वह मुझपर है गोमतीपर उसका क्या एहसान मेरे कारण उसपर क्यों ऐसी क्रूरता की जाती है। यहा उसे कौनसा सुख है जिसके लिये वह फटकारपर फटकार सहे? पति मिला है वह बूढ़ा और सदा रोगी, घर मिला है वह ऐसा कि अगर आज नौकरी छूट जाय तो कल चूल्हा न जले। इस दशा में गोदावरी का यह स्नेह-रहित बर्ताव उन्हे बहुत अनुचित मालूम होता।

गोदावरीकी दृष्टि इतनी स्थूल न थी कि उसे पण्डितजी के मनके भाव नजर न आवें। उनके मनमे जो विचार उत्पन्न होते वे सब गोदावरीको उनके मुखपर अंकितसे दिखाई पड़ते। यह जानकारी उसके हृदयमें एक ओर गोमतीके प्रति ईर्पाकी प्रचण्ड अग्नि दहका देती, दूसरी ओर पंडित देवदत्त पर निष्ठुरता और स्वार्थ-प्रियता का दोषारोपण कराती। फल यह हुआ कि मनोमालिन्य दिन-दिन बढता ही गया।

गोदावरी ने धीरे-धीरे पंडितजीसे गोमती की बातचीत करनी छोड़ दी, मानो उसके निकट गोमती घरमें थी ही नहीं। न‌ उसके खाने पीने की वह सुध लेती है, न कपडे लत्ते की। एक बार कई दिनों तक उसे जलपान के लिये कुछ भी न मिला। पंडित