अपनी खातिरसे नहीं तो तुम्हे मेरी सातिरसे यह काम करना ही पड़ेगा।
पण्डितजी सरल स्वभावके मनुष्य थे। हामी तो उन्होंने न भरी, पर बार-बार कहनेसे वे कुछ-कुछ राजी अवश्य हो गये। उस तरफसे इसीकी देर थी। पण्डितजीको कुछ भी परिश्रम न करना पड़ा। गोदावरीकी कार्य-कुशलताने सब काम उनके लिये सुलभ कर दिया। उसने इस कामके लिये अपने पाससे केवल रूपये ही नहीं निकाले, किन्तु अपने गहने और कपड़े भी अर्पण कर दिये। लोकनिन्दा का भय इस मार्गमे सबसे बड़ा काँटा था। देवदत्त मनमें विचार करने लगे कि जब मैं मोर सजाकर चलूगा तब लोग मुझे क्या कहेंगे? मेरे दफ्तरके मित्र मेरी हँसी उड़ायेगे और मुस्कुराते हुए कटाक्षोंसे मेरी ओर देखेगे। उनके ये कटाक्ष छुरीसे भी ज्यादा तेज होंगे। उस समय मैं क्या करूँगा?
गोदावरीने अपने गांवमे जाकर इस कार्य्यको प्रारम्भ कर दिया और इसे निर्विघ्न समाप्त भी कर डाला। नयी बहू घरमें आ गई। उस समय गोदावरी ऐसी प्रसन्न मालूम हुई मानो वह बेटेका व्याह कर लाई हो। वह खूब गाती-बजाती रही। उसे क्या मालूम था कि शीघ्र ही उसे इस गाने के बदले रोना पड़ेगा।
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कई मास बीत गये। गोदावरी अपनी सौतपर इस तरह शासन करती थी मानो वह उसकी सास हो, तथापि वह यह घात कभी न भूलती थी कि मैं वास्तवमें उसकी सास नहीं हूँ। उधर
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