(४)
जिस समय लालबिहारी सिंह सिर झुकाये आनन्दी के द्वारपर
खड़ा था, उसी समय श्रीकंठ सिंह भी आँखें लाल किये बाहर से
आये। भाईको खडा़ देखा तो घृणासे आंखें फेर लीं और कतरा
कर निकल गये मानो उसकी परछाहींसे भी दूर भागते हैं।
आनन्दीने लालबिहारीकी शिकायत तो की थी लेकिन अब मनमें पछता रही थी। वह स्वभावसे ही दयावती थी। उसे इसका तनिक भी ध्यान न था कि बात इतनी बढ़ जायगी। वह मनमें अपने पतिपर झुझला रही थी कि यह इतनेमें गरम क्यों हो जाते हैं? उसपर यह भय भी लगा हुआ था कि कहीं मुझमे इलाहा -बाद चलनेको कहें तो कैसे क्या करूंँगी। इसी बीचमें जब उसने लालबिहारीको दरवाजेपर खड़े यह कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ, मुझसे जो कुछ अपराध हुआ है उसे क्षमा करना, तो उसका रहा सहा क्रोध भी पानी-पानी हो गया। वह रोने लगी। मनकी मैल धोने के लिये नयन जलसे उपयुक्त और कोई वस्तु नहीं है।
श्रीकण्ठ को देखकर आनन्दीने कहा, लाला बाहर खडे़ बहुत रो रहे हैं।
श्रीकंठ––तो में क्या करू?
आनन्दी––भीतर बुला लो। मेरी जीभमें आग लगें मैंने कहाँ से यह झगढ़ा उठाया।
श्रीकठ––मैं न बुलाऊँगा!
आनन्दी––पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि हो गई है, ऐसा न हो कहीं चल दे।