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सप्तसरोल
 


प्रातःकाल अपने बापके पास जाकर बोले, दादा, अब इस घरमें मेरा निर्वाह न होगा।

इस तरह की विद्रोहपूर्ण बातें कहने पर श्रीकण्ठने कितनी हो बार अपने कई मित्रोंको आड़े हाथों लिया था। परन्तु दुर्भाग्य आज उन्हें स्वय वही बात अपने मुहसे कहनी पड़ी! दूसरों को उपदेश देना भी कितना सहज है।

वेनीमाधव सिंह घबडा़कर उठे और बोले, क्यों?

श्रीकण्ठ––इसलिये कि मुझे भी अपनी मान-प्रतिष्ठाका कुछ विचार है। आपके घरमें अब अन्याय और हठका प्रकोप हो रहा है। जिनको बडोंका आदर-सम्मान करना चाहिये वह उनके सिर चढते हैं। मैं दूसरे का चाकर ठहरा, घरपर रहता नहीं, यहाँ मेरे पीछे स्त्रियोंपर खडाऊ और जूतोंकी बौछारें होती हैं। कडी बाततक चिन्ता नहीं, कोई एककी दो कह ले, यहांँतक मैं सह सकता हूँ, किन्तु यह कदापि नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात, घूसे पड़े और मैं दम न मारू।

वेनीमाधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकण्ठ सदैव उनका आदर करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढे ठाकुर अवाक् रह गये। केवल इतना ही बोले, बेटा, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बाते करते हो? स्त्रियाँ इसी तरह घर का नाश कर देती हैं। उनको बहुत सिर चढ़ाना अच्छा नहीं।

श्रीकण्ठ––इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीर्वाद से ऐसा मुर्ख नहीं हूँ। आप स्वयं जानते हैं कि मेरे ही समझाने-बुझाने से इसी गांवमें, कई घर संभल गये, पर जिस स्त्रीकी मान-प्रतिष्ठाका मैं