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सप्तसरोज
 


कुछ खाया, न पिया, उनकी बाट देखती रही। अन्त में शनिवार को वह नियमानुकूल संध्या समय घर आये और बाहर बैठकर कुछ इधर-उधर की बाते, कुछ देश और काल सम्बन्धी समाचार तथा कुछ नये मुकद्दमो आदिकी चर्चा करने लगे। यह वार्त्तालाप दस बजे रात तक होता रहा। गांव के भद्र पुरुषों को इन बातों में ऐसा आनन्द मिलता था कि खाने-पीनेकी भी सुधि न रहती थी। श्रीकण्ठ का पिंड छुड़ाना मुश्किल हो जाता था। यह दो-तीन घंटे आनन्दीने बड़े कष्टसे काटे। किसी तरह भोजन का समय आया। पञ्चायत उठी। जब एकान्त हुआ तब लालबिहारीने कहा——भैया, आप जरा घरमें समझा दीजियेगा कि मुंह संभालकर बातचीत किया करें, नहीं तो एक दिन अनर्थ हो जायगा।

बेनीमाधव सिंह ने बेटे की ओर से साक्षी दी, हां,बहू बेटियो का यह स्वभाव अच्छा नहीं कि पुरुषों के मुँँह लगे।

लालबिहारी——वह बडे़ घर की बेटी है तो हमलोग भी कोई कुर्मी कहार नहीं है।

श्रीकण्ठने चिन्तित स्वरसे पूछा, आखिर बात क्या हुई।

लालबिहारीने कहा, कुछ भी नहीं, योंही आप ही आप उलझ पड़ी। मैके के सामने हमलोगों को तो कुछ समझती ही नहीं।

श्रीकण्ठ खा पीकर आनन्दीके पास गये। वह भरी बैठी थी यह हजरत भी कुछ तीखे थे। आनन्दी ने पूछा, चित्त तो प्रसन्न है

श्रीकण्ठ बोले, बहुत प्रसन्न है, पर तुमने आजकल घर में यह क्या उपद्रव मचा रक्खा है?

आनन्दीकी तेवरियोंपर बल पढ गये और झुझलाहट के मारे