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बडे़ घरकी बेटी‌
 

लालबिहारी को भावजकी यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई। तिनककर बोला, मैकेमें तो चाहे घी की नदी बहती है।

स्त्री गालियां सह लेती है, मार भी सह लेती है, पर मैके की निन्दा उससे नहीं सही जाती। आनन्दी मुँँह फेरकर बोली, हाथी मरा भी तो नौ लाख का,वहा इतना घी नित्य नाई कहार खा जाते हैं।

लालबिहारी जल गया,थाली उठाकर पटक दी और बोला जी चाहता है कि जीभ पकड़कर खींच लूँ।

आनन्दीको भी क्रोध आया। मुँँह लाल हो गया, बोली, वह होते तो आज इसका मजा चखा देते।

अब अपढ़, उजद्द ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमीन्दार की बेटी थी। जब जी चाहता उसपर हाथ साफ कर लिया करता था। उसने खडाऊँ उठाकर आनन्दी की ओर जोरसे फेंकी और बोला, जिसके गुमानपर भूली हुई हो, उसे भी देखूँँगा और तुम्हें भी।

आनन्दीने हाथसे खडाऊँ रोकी, सिर बच गया। पर अगुली- से बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते हुए पत्तेकी भांति कापती हुई अपने कमरेमें आकर खडी़ हो गई। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमण्ड होता है। आनन्दी लोहू का घुँँट पीकर रह गई।

श्रीकण्ठ सिंह शनिवार को घर आया करते थे। वृहस्पति को यह घटना हुई थी। दो दिनतक आनन्दी कोपभवनमें रही। न