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सप्तसरोज
 


ही देखा। जिस टीमटीमकी उसे बचपनसे ही आदत पड़ी हुई थी वह यहाँ नाममात्र को भी न थी। हाथी-घोड़ों की तो बात क्या, कोई सजी हुई सुन्दर बहली तक न थी। रेशमी स्लीपर साथ लाई थी, पर यहाँ बाग कहाँ। मकानमें खिडकियाँ तक न थीं, न जमीनपर फर्श, न दीवारपर तस्वीरे। यह एक सीधे-सादे देहाती गृहस्थ का मकान था। किन्तु आनन्दी ने थोड़े ही दिनो में अपने को इस नयी अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानो उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे।

एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह दो चिडियाँ लिये हुए आया और भावज से कहा, जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनन्दी भोजन बनाकर इनकी राह देख रही थी। अब नया नया व्यंजन बनाने बैठी। हांंडीमें देखा तो घी पावभर से अधिक न था। बड़े घरकी बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मासमें डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा तो दाल में घी न था, बोला, दालमें घी क्यों नहीं छोडा?

आनन्दीने कहा, घी सब मांसमें पड़ गया। लालबिहारा जोरसे बोला, अभी परसों घी आया है, इतनी जल्दी उठ गया।

आनन्दीने उत्तर दिया, आज तो कुल पावभर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया।

जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुघासे बावला मनुष्य जरा जरासी बातपर तिनक जाता हैं।