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सम्तसरोज
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को यहांतक कष्ट उठानेकी कोई जरूरत नहीं, एक महीने तक उम्मीदवारों की रहन सहन, आचार-विचारकी देख-भाल की जायगी, विद्याका कम, परन्तु कर्त्तव्यका अधिक विचार किया जायगा। जो महाशय इस परीक्षामें पूरे उतरेगे वे इस उच्च पदपर सुशोभित होंगे।

इस विज्ञापनने सारे मुल्कमें हलचल मचा दी। ऐसा ऊँचा पद और किसी प्रकारकी कैद नहीं? केवल नसीबका खेल है। सैकड़ों आदमी अपना-अपना भाग्य परखनेके लिये चल खड़े हुए। देवगढ्में नये-नये और रंग विरंगके मनुष्य दिखाई देने लगे। प्रत्येक रेलगाड़ीसे उम्मीदवारोंका एक मेला सा उतरता। कोई पंजाबसे चला आता था, कोई मद्राससे, कोई नये फैशनका प्रेमी, कोई पुरानी सादगीपर मिटा हुआ। पण्डितों और मौलवियोंको भी अपने-अपने भाग्यकी परीक्षा करनेका अवसर मिला। बेचारे सनदके नामको रोया करते थे, यहां उसकी कोई जरूरत नहीं थी। रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकारके अंगरखे और कन्टोप देवगढ़में अपनी सजधज दिखाने लगे। लेकिन सबसे विशेष संख्या ग्रेजुएटोंकी थी, क्योंकि सनदकी कैद न होनेपर भी सनदसे परदा तो ढका रहता है।

सरदार सुजानसिंहने इन महानुभावोंके आदर-सत्कारका बड़ा अच्छा प्रबन्ध कर दिया था। लोग अपने-अपने कामरों में बैठे हुए रोजेदार मुसलमानों की तरह महीने के दिन गिना करते थे। हरएक मनुष्य अपने जीवनको अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूपमें