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परीक्षा

जब रियासत देवगढ़के दीवान सरदार सुजानसिंह बूढ़े हुए तो परमात्माकी याद आयी। जाकर महाराजसे विनय की कि दीनबन्धु दासने श्रीमान्‌की सेवा चालीस साल तक की, अब मेरी अवस्था भी ढल गई, राज-काज संभालनेकी शक्ति नहीं रही। कहीं भूल-चूक हो जाय तो बुढ़ापेमें दाग लगे। सारी जिन्दगीकी नेकनामी मिट्टीमें मिल जाय।

राजा साहब अपने अनुभवशील, नीतिकुशल दीवानका वड़ा आदर करते थे। बहुत समझाया, लेकिन जब दीवान साहबने न माना तो हारकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। पर, शर्त यह लगा दी कि रियासतके लिये नया दीवान आप हीको खोजना पड़ेगा।

दूसरे दिन देशके प्रसिद्ध प्रसिद्ध पत्रोंमें यह विज्ञापन निकला कि देवगढ़के लिये एक सुयोग्य दीवानकी जरूरत है। जो सज्जन अपनेको इस पदके योग्य समझे वे वर्त्तमान दीवान सरदार सुजानसिंहकी सेवामें उपस्थित हों। यह जरूरी नहीं है कि वे ग्रेजुएट हों, मगर हृष्ट-पुष्ट होना आवश्यक है, मन्दाग्निके मरीज-