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उपदेश
 


से कभी गांवकी यह दशा इस भयसे न कहता था कि शायद आप समझें कि मैं ईर्षा के कारण ऐसा कहता हूँ। यहाँ यह कोई नयी बात नहीं है। आये दिन ऐसी ही घटनाएं होती रहती हैं। और कुछ इसी गांवमे नहीं, जिस गांवको देखिये, यही दशा है। इन सब आपत्तियोंका एकमात्र कारण यह है कि देहातोंमे कर्मपरायण, विद्वान और नीतिज्ञ मनुष्योंका अभाव है। शहरके सुशिक्षित जमींदार जिनसे उपकारकी बहुत कुछ आशा की जाती है, सारा काम कारिन्दोंपर छोड़ देते हैं। रहे देहातके जमींदार, सो निरक्षर भट्टाचार्य हैं। अगर कुछ थोड़े-बहुत पढ़े भी हैं तो अच्छों संगति न मिलनेके कारण उनमें बुद्धि का विकास नहीं है। कानूनके थोड़ेसे दफे सुन-सुना लिये हैं, बस उसीकी रट लगाया करते हैं। मैं आपसे सत्य कहता हूँ, मुझे जरा भी खबर होती तो मैं आपको सचेत कर दिये होता।

शर्माजी——खैर, यह बला तो टली, पर मैं देखता हूँ कि इस ढङ्गसे काम न चलेगा। अपने असामियोंको आज इस विपत्तिमें देखकर मुझे बड़ा दुख हुआ। मेरा मन बार-बार मुझको इस सारी दुर्घटनाओंका उत्तरदाता ठहराता है। जिसकी कमाई खाता हूँ जिनकी बदौलत टमटमपर सवार होकर रईस बना घूमता हूँ, उनके कुछ स्वत्व भी तो मुझपर हैं। मुझे अब अपनी स्वार्थान्धता स्पष्ट दीख पड़ती है। मैं आप अपनी ही दृष्टिमें गिर गया हूँ। मैं सारी जातिके उद्धारका बीड़ा उठाये हुए हूँ, सारे भारत वर्षके लिये प्राण देता फिरता हूँ, पर अपने घरकी खबर ही नहीं। जिनकी रोटियाँ खाता हूँ उनकी तरफसे इस तरह उदासीन