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सप्तसरोज
१०४
 


सिपाहिन से कहेन कि एहिका पकरिके खूब मारो, तब देवी चिल्लाय चिल्लाय खूब रोवै लागल, एतने में सरमा जी कोठी पर से खट-खट उतरेन और मुख्तार के लगे डाँटे। मुख्तार ठाढ़ै झूर हो गयेन। दारोगा जी धीरे से घोड़ा मँगवाय के भागेन। मनई सरमा जी के असीसत चला जात हैं।

बाबूलाल——यह तो मैं पहले ही कहता था कि शर्मा जी से यह अन्याय न देखा जायगा।

इतने में दूर से एक लालटेन का प्रकाश दिखाई दिया। एक आदमी के साथ शर्मा जी आते हुए दिखाई दिये। बाबूलाल ने असामियों को वहाँ से हटा दिया, कुरसी रखवा दी और बढ़ कर बोले——आपने इस समय क्यों कष्ट किया, मुझको बुला लिया होता।

शर्मा जी ने नम्रता से उत्तर दिया——आपको किस मुँह से बुलाता, मेरे सारे आदमी वहाँ पीटे जा रहे थे, उनका गला दबाया जा रहा था कि आपके आस पास न फटके। मुझे आपसे मदद की आशा थी। आज हमारे मुख़्तार ने गाँव में लूट मचा दी थी। मुख़्तार की और क्या कहूँ। बेचारा थोड़े औक़ात का आदमी है। खेद तो यह है कि आपके दारोग़ा जी भी उनके सहायक थे। कुशल यह थी कि मैं वहाँ मौजूद था।

बाबूलाल——बहुत लज्जित हूँ कि इस अवसर पर आपकी कुछ सेवा न कर सका। पर बात यह है कि मेरे वहाँ जाने से मुख़्तार साहब और दारोग़ा दोनों अप्रसन्न होते। मुख़्तार मुझसे कई बार कह चुके हैं कि आप मेरे बीच में न बोला कीजिए। मैं आप