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सप्तसरोज
 


था। मुखड़ा भरा हुआ, चौड़ी छाती, भैंसका दो सेर ताजा दूध वह सवेरे उठ पी जाता था । श्रीकंठ सिंहकी दशा उसके बिल्कुल विपरीत थी। इन नेत्रप्रिय गुणोंको उन्होंने इन्हीं दो अक्षरोंपर न्यौछावर कर दिया था। इन दो अक्षरोंने इनके शरीरको निर्बल और चेहरेको कान्तिहीन बना दिया था। इसीसे वैद्यक ग्रंथोंपर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधियोंपर उनका अधिक विश्वास था। सांझ-सबेरे उनके कमरेसे प्रायः खरलकी सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनाई दिया करती थी। लाहौर और कलकत्ते के वैद्योंसे बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी।

श्रीकण्ठ इस अंग्रेजी डिग्री के अधिपति होनेपर भी अंग्रेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे। बल्कि वह बहुधा बडे़ जोर से उनकी निन्दा और तिरस्कार किया करते थे। इसीसे गांव में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरेके दिनोंमे वह बडे़ उत्साहसे रामलीलामें सम्मिलित होते और स्वयं किसी-न-किसी पात्रका पार्ट लेते। गौरीपुरमें रामलीलाके वे ही जन्मदाता थे। प्राचीन हिन्दू सभ्यताका गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अङ्ग था। सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथाके तो वे एकमात्र उपासक थे। आजकल स्त्रियों की कुटुम्बमें मिल-जुलकर रहनेकी ओर जो अरुचि होती है उसे वे जाति और देशके लिये बहुत ही हानिकर समझते थे। यही कारण था कि गांवकी ललनाएँ उनकी निन्दक थीं। कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी सङ्कोच न करती थीं, स्वयं उनकी पत्नीको ही इस विषयमें उनसे विरोध था। वह इसलिये नहीं कि उसे अपने सास, ससुर, देवर, जेठसे घृणा थी, बल्कि उसका