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सप्तसरोज
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गया। वह सीढ़ियोंके द्वारपर आये। कमरेमें झांककर देखा। मेजपर रुपये गिने जा रहे थे। दारोगाजीने फर्माया, इतने बडे गाँवमें सिर्फ यही?

मुख्तार साहब ने उत्तर दिया, अभी घबराइये नहीं। अबकी मुखियोंकी खबर ली जाय। रुपयोंका ढेर लग जाता है।

यह कहकर मुख्तारने कई किसानों को पुकारा, पर कोई न बोला, तब दारोगाजी का गगन-भेदी नाद सुनाई दिया, यह लोग सीधेसे न मानेगे। मुखियों को पकड लो। हथकड़िया भर दो। एक एकको डामल भिजवाऊगा।

यह नादिरशाही हुक्म पाते ही कान्सटेबलों का दल उन आदमियों पर टूट पडा। ढोल-सी पिटने लगी। क्रन्दनध्वनिसे आकाश गूज उठा। शर्माजीका रक्त खौल रहा था। उन्होंने सदैव न्याय और सत्यकी सेवा की थी। अन्याय और निर्दयताका यह करुणात्मक अभिमान उनके लिये असह्य था।

अचानक किसीने रोकर कहा, दोहाई सरकार की, मुख्तार साहब हम लोगनका हक नाहक मरवाये डारत हैं।

शर्माजी क्रोधसे कांपते हुए धम-धम कोठे से उतर पडे। यह दृढ़ सकल्प कर लिया कि मुख्तार साहब को मारे हटरोंको गिरा दू, पर जन-सेवामें मनोवेगोंके दबानेकी बडी प्रबल शक्ति होती है। रास्ते ही में संभल गये। मुख्तार को बुलाकर कहा, मुन्शीजी, आपने यह क्या गुलगपाड़ा मचा रखा है?

मुख्तारने उत्तर दिया, हुजूर दारोगाजीने इन्हें एक डाकेका तहकीकातमें तलब किया है।