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सप्तसरोज
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उठाके फेंक दें। वाह! मेरा घर न हुआ कोई होटल हुआ! आकर डट गये। तेवर बदले हुए बरामदे में जा पहुंचे कि इतने में छोटे दारोगा बाबू कोकिला सिंहने कमरे से निकलकर पालागन किया और हाथ बढाकर बोले––अच्छी साइतसे चला था कि आपके दर्शन हो गये। आप मुझे भूल तो न गये होंगे?

यह महाशय दो साल पहले "मोसल सर्विस लीग" के उत्साही सदस्य थे। इण्टरमिडियेट फेल हो जानेके बाद पुलिस में दाखिल हो गये थे। शर्माजी उन्हें देखते ही पहचान गये। क्रोध शान्त हो गया। मुस्कुराने की चेष्टा करके बोले, भूलना बड़े आदमियों का काम है। मैं तो आपको दूर ही से पहचान गया था। कहिये, इसी थाने में है क्या? कोकिला सिंह बोले, जी हा, आजकल यही हूँ।आइये, आपको दारोगाजीसे इंट्रोड्यूस(परिचित) करा दूं।

भीतर आराम कुरसीपर लेटे दारोगा जुल्फिकार अलीखा हुक्का पी रहे थे। बडे डीलडौलके मनुष्य थे। चेहरेसे रोब टपकता था।शर्माजी को देखते ही उठकर हाथ मिलाया और बोले,जनाब से नियाज हासिल करने का शौक मुद्दतसे था। आज खुशनसीबीसे मौका भी मिल गया। इस मुदासिलत वेजाको मुआफ फरमाइयेगा।

शर्माजी को आज मालूम हुआ कि पुलिसवालोको अशिष्ट कहना अन्याय है। हाथ मिलाकर बोले, यह आप क्या फरमाते हैं, यह तो आपका घर है।

पर इसके साथ ही पुलिसपर आक्षेप करनेका ऐसा अच्छा अवसर हाथसे नहीं जाने देना चाहते थे। कोकिलासिंहसे बोले,