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उस पर आग पड़ गई, तो पंडिताइन को उस पर कुछ दया आ गई। पंडितजी भोजन करके उठे, तो बोली - 'इस चमरवा को भी कुछ खाने को दे दो, बेचारा कब से काम कर रहा है। भूखा होगा।'
पंडितजी ने इस प्रस्ताव को व्यावहारिक क्षेत्र से दूर समझ करं पूछा - 'रोटियाँ हैं?'
पंडिताइन - 'दो-चार बच जायँगी।
पंडित - 'दो-चार रोटियों में क्या होगा? चमार है, कम से कम सेर भर चढ़ा जायगा।'
पंडिताइन कानों पर हाथ रखकर बोलीं - 'अरे बाप रे ! सेर भर ! तो फिर रहने दो।'
पंडितजी ने अब शेर बनकर कहा - 'कुछ भूसी-चोकर हो तो आटे में मिलाकर दो-ठो लिट्टी[१] ठोंक दो। साले का पेट भर जायगा। पतली रोटियों से इन नीचों का पेट नहीं भरता। इन्हें तो जुआर का लिट्टा चाहिए।'
पंडिताइन ने कहा - 'अब जाने भी दो, धूप में कौन मरे।'
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सद्गति/मुंशी प्रेमचन्द 14
- ↑ लिट्टी - मोटी रोटी (टिक्कड़)