पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/७७

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६४ सत्यार्थप्रकाशः ।। ड यच्चान्यदसदतस्तदसत् ॥ वै० अ॰ है । आ० १ । जो पूक्त तीनों अभावों से भिन्न है उसको अत्यन्ताभाव कहते हैं । जैसे नर’ अथात् मनुष्य का सींग ‘खपुष्प आकाश का फूल और “बन्ध्या - 1 पुत्र" बन्ध्या का पुत्र इत्यादि ॥ पाचवां नास्ति घटो गेह इति सतो घटस्य गेहसंसर्गप्रतिषेध ॥ वै० 1 अ० & ! आ० १। सू० १० ॥ घर में घड़ नहीं अर्थात् अन्यत्र है घर के साथ घड़े का सम्बन्ध नहीं है, ये पांच प्रकार के अभाव कात हैं ! इन्द्रियदोषात्संस्कारदोषाध्चाविया ॥ वै० । अ० है । आ० २ । स० १० ? इन्द्रियों और संस्कार के दोप से अविद्या उत्पन्न होती है । तई टज्ञान ॥ वै० । अ० & । चा० २ । सू० ११ ॥ जो दुष्ट अर्थात् विपरीत ज्ञान है उसको आविद्या कहते हैं । अदुष्ट विद्या ॥ वै० । अ० & । आ० २ । सू० १२ ॥ जो आदुष्ट अर्थात् यथार्थ ज्ञान है उसको विद्या कहते हैं । । पृथिव्यादिरूपरसगन्धस्पर्शी द्रव्या नित्यवादनित्यश्व ॥ '! वै० । अ० ७ । घा० १ । सू० २ ॥ } एतेननित्येयु नित्यत्वमुक्तस्र ॥ वै० । अ०७ । आ० १। } सु० ३ ॥ ' ज। फार्यप पृथियाटि पद्मार्थ और उनमें रूपरस, गन्ध, स्पर्श, गुण हैं ये ! सत्र ठ के 'प्रनिय होने में नित्य हैं और जो इससे कारणरूप पृथियादि नित्य ट्रef में गन्धtiद गुण हैं वे निस्य हैं ।