पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६२५

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S s की स्वमन्तव्यमन्तव्यप्रकाशः 7 वीं इसी प्रग सरकार पर किए गए हैं । सर्वेतन्त्र साम्राज्य खर्वजनिक धर्म जिसको सदा ये सब मानते सिद्धान्त अथत् , और मानेंगे भी इसीलिये डश्वको सनातम नित्यधर्म कहते हैं कि जिव ायमानस ६ का विरोधी यदि झमये कोई भी न होख आविद्यायुक्त जन अथवा किसी मतवाले के हुए वा जन जिसको अन्यथा जाने माने डव व्ठा स्वी शार कोई भी बुद्धि मात्र नहीं करते किन्तु आप्त सत्य मानी, सत्यवादी, घड्यकारी, जिसको अर्थात् परोपकारक पक्षपातर- हित विद्वान मानते हैं वही सब को मन्तव्य और जि को मानते अ नहीं वइ मन्तव्य ब्रह्म से लेकर होने से प्रमाण के योग्य नहीं होता। अब जो वेदादि सत्यशा और में व जैमिनमुनि पर्यन्तों के माने हुए ईश्वरदि पदार्थ हैं जिनको कि क भी मानता । हूं सजन महाशयों के सामने में है प्रकाशित करता हूं। चपना मन्तव्य उसी को जानता कि जो चीन काल में सब को एकसा व । मानने योग्य है । मेरा कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है किन्तु जो सत्य है उसको मानना मनवाना द ाआर छुडवाना और जो असत्य छोड़ना मु को अभीष्ट है। यदि में पक्षपात करता तो आर्यावत्ते में प्रचरित मतों में से किसी एक मत का आाही होव। किन्तु जो २ अन्य देशों में अधसैंयुक्त चाल हैं उनका स्वीकार आय्यावत्त वा चलन और जो घमैयुक्त बातें हैं उनका स्याग नहीं करता न करना चाहता हूं क्योंकि ऐसा करना समय चे बईि है। मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वावल और हानि लाभ को सम, अन्य7यकारी बछवान से भी न डरे के सुख दुःख अन्यथां थे । और धम्मम निर्बल से भी डरता रहे, इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व ड ९ -