पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/६०

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तीयसल्लास: ॥ ४७ अहिंसदैव भूतान कार्य श्रेयोलुशासन। वाक् व मधुरा लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता ॥ १ ॥ यस्य वाड्मनसे शुछ सम्यग्गुसे च सर्वा। स वे सर्वमवागत वेदान्तापगत फलस्र ॥ २ ॥ A में म॰ २ से १५९ में १६० ॥ विद्वान् और विद्यार्थियो को योग्य है कि बैरकृद्धि छोड़ के सब मनुष्यों को कल्याण के मार्ग का उपदेश करें और उपदेष्टा सदा मधुर सुशीलतायुक्त वाणी बोले जो धर्म की उन्नति चाहै वह सदा सक्ष्य में चले और सस्य ी का उपदेश करे । जिस मनुष्य के वाणी और मन शुद्ध तथा सुरक्षित सदा रहते हैं वही सब वेदान्स अर्थात् सघ वेदों के सिद्धान्तरूप फल को प्राप्त होता है ॥ २ ॥ संमानाद ब्राह्मणों नियमुद्विजेत विषादव। - अतस्येव चकाक्षेदवमानय सवंद ॥ - मनु० २ । १६२ 1 वही त्राह्मण स मप्र वेद और परमेश्वर को जानता है जो प्रतिष्ठा से विष के 1 तुल्य सदा डरता है और अपमान की इच्छा अ मृत के समान किया करता है । अनेन क्रमयोगेन संस्कृतारमा जिः मै । गु वसन् संश्चितुया ब्रह्माधिगमिक तष. ॥ मनु॰ २। १६४ ॥ इसी प्रकार से कतोपन्नयन ब्रिज ब्रह्मचारी कुमार और ब्रह्मचारिणी कन्या धीरे २ वेदार्थ के ज्ञानरूप उत्तम तप को बढाते चले जायें । यधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम् । स जीव व शूद्रदमाशु गच्छति सान्वयः ॥ मनु० २ । १६८ ।