पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/४५६

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४५२ | सत्यार्थप्रकाशः ।। जैसा स्वभाव होता है उस का वैसा ही फल हुआ करता है । ( उत्तर ) जो स्वभाव से है तो उसको छूटना वा मिलना नहीं हो सकता, हां जैसे शुद्ध वस्त्र में निमित्तों से मल लगता है उसके बुडाने के निमित्त से छूट भी जाता है ऐसा मानना ठीक है । ( प्रश्न ) संयोग के विना कर्म परिणाम को प्राप्त नहीं होता, जैसे दूध और खटाई के संयोग के विना दही नहीं होता इसी प्रकार जीव और कर्म के योग से कर्म । का परिणाम होता है। ( उत्तर ) जैसे दही और खटाई का मिलानेवाला तीसरा होता है वैसे ही जीवों को कम के फल के साथ मिलानेवाला तीसरा ईश्वर होना चाहिये। क्योंकि जड़ पदार्थ स्वयं नियम से संयुक्त नहीं होते और जीव भी अल्पज्ञ होने से स्वयं अपने कर्मफल को प्राप्त नहीं होसकते, इमसे यह सिद्ध हुआ कि बिना ईश्वरस्थापित सृष्टिक्रम के कर्मफलव्यवस्था नहीं हो सकती । ( प्रश्न ) जो कर्म से मुक्त होता है वहीं ईश्वर कहता है। (उत्तर) जव अनादि काल से जीव के साथ कर्म लेगे । हैं तो उनसे जीव मुक्त कभी नहीं हो सकेंगे। (प्रश्न) कर्म का बन्ध सादि है।(उत्तर) जो सादि है तो कर्म का योग अनादि नहीं और संयोग की आदि में जीव निष्कर्म होगा और जो निष्कर्म को कर्म लग गया तो मुक्तों को भी लग जायगा और कर्म कर्ता का समवाय अर्थात् नित्य सम्वन्ध होता है यह कभी नहीं छूटता, इसलिये जैसा ९ वे समुल्लास में लिख आये हैं वैसा ही मानना ठीक है। जीव चाहे जैसा अपना ज्ञान और सामर्थ्य बढ़ावे तो भी उसमें परिभितज्ञान और ससीम सामथ्र्य रहेगा ईश्वर के समान कभी नहीं हो सकता। हां जितना सामथ्र्य बढ़ना उचित है उतना योग से बढ़ा सकता है और जो जैनियों में आईत लोग देह के परिमाण से जीव का भी परिमाण मानते हैं उनसे पूछना चाहिये कि जो ऐसा हो तो हाथी का जीव कीड़ी में और कीडी का जीव हाथी में कैसे समर सकेगा ? यह भी एक मूर्खता की बात है क्योंकि जीव एक सूक्ष्म पदार्थ है जो कि एक परमाणु में भी रह सकता है परन्तु उसकी शक्तियां शरीर में प्राण विजुली और नाड़ी आदि के साथ संयुक्त हो रहती हैं उनसे सब शरीर का चॅर्तमान जानता है अच्छे संग से अच्छा और बुरी संग से बुरा होजाता है । अव जैन लोग धर्म इस प्रकार का मानते हैंमूल-रे जीव भवदुहाई इके चिय हरइ जिणमयं धम्मं । इयराणं परमं तो सुहकप्ये मूढमुसि ओसि ॥ प्रकरणरत्नाकर भाग २ । षष्ठी शतक ६०। सूत्राङ्क ३ ॥