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एकादशसमुल्लास: । ४०९ -~.......... ................. जाय और दो मत अर्थात् धर्मात्मा और अधर्मात्मा सदा रहते हैं वे तो रहैं परन्तु धर्मात्मा अधिक होने और अधर्मी न्यून होने से संसार में सुख बढ़ता है और जब अधर्मी अधिक होते हैं तब दुःख, जब सब विद्वान् एकसा उपदेश करें तो एकमत होने में कुछ भी विलम्ब न हो । (मतवाले) आजकल कलियुग है सतयुग की बात मत चाहो । ( जिज्ञासु ) कलियुग नाम काल का है, काल निष्क्रिय होने से कुछ धर्माधर्म के करने में साधक बाधक नहीं किन्तु तुम ही कलियुग की मूर्तियां बन रहे हो जो मनुष्य ही सतयुग कलियुग न हों तो कोई भी संसार में धर्मात्मा नहीं होता, ये सव संग के गुण दोष हैं स्वाभाविक नहीं । इतना कहकर आप्त के पास गया उनसे कहा कि महाराज ! तुमने मेरा उद्धार किया, नहीं तो मैं भी किसी के जाल में फंसकर नष्ट भ्रष्ट होजाता, अब मैं भी इन पाखण्डियों का खण्डन और वेदोक्त सत्य मत का मण्डन किया करूगा । ( आप्त ) यही सब मनुष्यों का विशेष विद्वान् और संन्यासियों का काम है कि सब मनुष्यों को सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन पढ़ा सुना के सत्योपदेश से उपकार पहुचाना चाहिये। ( प्रश्न ) जो ब्रह्मचारी, सन्यासी हैं वे तो ठीक हैं ? ( उत्तर ) ये अाश्रम तो ठीक हैं परन्तु आजकल इनमें भी बहुतसी गड़बड़ है कितने ही नाम ब्रह्मचारी रखते हैं और झूठ मूठ जटा बढ़ाकर सिद्धाई करते और जप पुरश्चरणदि में फैंसे रहते हैं विद्या पढ़ने का नाम नहीं लेते कि जिस हेतु से ब्रह्मचारी नाम होता है उस ब्रह्म अथात् वेद पढ़ने में परिश्रम कुछ भी नहीं करते वे ब्रह्मचारी बकरी के गले के स्तन के सदृश निरर्थक हैं और जो वैसे संन्यासी विद्याहीन दण्ड कमएडलु ले भिक्षामात्रे करते फिरते हैं जो कुछ भी वेदमार्ग की उन्नति नहीं करते छोटी अवस्था मे सन्यास लेकर घूमा करते हैं और विद्याऽभ्यास को छोड़ देते हैं । ऐसे ब्रह्मचारी और संन्यासी इधर उधर जल स्थल पाषाणादि मूर्तियों का दर्शन पूजन | करते फिरते, विद्या जानकर भी मौन हो रहते, एकान्त देश में यथेष्ट खा पीकर सोते पड़े रहते हैं और इष्य द्वेष में फैसकर निन्दा कुचेष्टा करके निर्वाह करते कापाय वस्त्र और दण्डग्रहणमात्र से अपने को कृतकृत्य समझते और सर्वोत्कृष्ट जानकर उत्तम काम नहीं करते वैसे संन्यास भी जगत् में व्यर्थ वास करते हैं और जा सब जगत् का हित साधते हैं वे ठीक हैं । ( प्रश्न ) गिरी, पुरी, भारती अदि गुसाई लोग तो अच्छे हैं ? क्योंकि मण्डली बांधकर इधर उधर घूमते हैं सैकड़ों साधु को आनन्द करते हैं और सर्वत्र अद्वैत मत का उपदेश करते हैं और १२