पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३४३

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एकादशसमुल्लासः ।।। अर्चत प्रचंत प्रियमेधासो अर्चत ॥ ऋग्वेदे ॥ त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वमेव प्रत्यक्ष ब्रह्म वदिष्यामि ॥ तैत्तिरीयोपनि० ।। वल्ली० १ । अनु० १ ।। कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते ॥ शतपथ० ॥ कां० १४ । प्रपाठ० ६ । ब्राह्म० ७ । काडिका १० ॥ मातृदेवो भव पितृदेवो भव आचार्यदेवो भव श्रतिथिदेवो भव ॥ तैत्तिरीयोपानि० ॥ व० १ । अनु० ११ ॥ पितृभिभ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः ॥ मनु० अ० ३ । ५५ ॥ उपचर्यः स्त्रिया साध्या सतत देववत्पतिः ॥ मनुस्मृतौ ।। प्रथम माता मूर्णिमती पूजनीय देवता अर्थात् सन्तानो को तन मन धन से सेवा करके माता को प्रसन्न रखना हिसा अर्थात् ताडना कभन करना। दूसरा पिसा सकर्तव्य देव उसकी भी माता के समान सेवा करनी । तीसरा आचार्य जी विद्या का देनेवाला है उसकी तन मन धन से सेवा करनी । चौथा अतिथि जो विद्वान्, धार्मिक, निष्कपटी, सब की उन्नति चाहनेवाला, जगत् में भ्रमण करता हुआ, सत्य उपदेश से सब को सुखी करता है उसकी सेवा करें। पांचवां स्त्री के लिये पति और पुरुष के लिये पत्नी पूजनीय है। ये पाच मूर्तिमान् देव जिनके संग से मनुष्य देह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा, विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है ये ही परमेश्वर को प्राप्त होने की सीढ़ियां है इनकी सेवा ने करके जो पाषाणादि मूर्ति पूजते हैं वे अतीव वेदविरोघी हैं । (प्रश्न ) माता पिता अदि की सेवा करें और मूर्तिपूजा भी करें तब तो कोई दोष नहीं? (उत्तर ) पाषाणादि मूर्तिपूजा तो सर्वथा छोड़ने और मातादि मूर्तिमान की सेवा करने ही में कल्याण है बड़े अनर्थ की बात है कि साक्षात् माता आदि प्रत्यक्ष सुखदायक देवों को छोड़ के अदेव पाषाणादि में शिर मारना स्वीकार किया ! इसको लोगों ने इसीलिये स्वीकार किया है कि जो माता पितादि के सामने नैवेद्य वा

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