पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/३४०

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'३३ ० सत्यार्थप्रकाशः । करता है वह नास्तिक हाता है ।। १ ॥ जो ग्रन्थ वेदवाह्य कुत्सित पुरुषो के बनाये संसार को दुःखसागर में डुबानेवाले हैं वे सब निष्फल असत्य अन्धकाररूप इस लोक और परलोक में दु खदायक हैं ॥ २॥जो इन वेदों से विरुद्ध ग्रन्थ उत्पन्न होते हैं वे आधुनिक होने से शीघ्र नष्ट होजाते हैं उनका मानना निष्फल और झूठा है॥३॥ इसी प्रकार ब्रह्मा से लेकर जैमिनि महर्षिपर्यन्त का मत है कि वेदविरुद्ध को न मानना किन्तु वेदानुकुल ही का आचरण करना धर्म है क्योंकि वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है इससे विरुद्ध जितने तन्त्र और पुराण हैं वेदविरुद्ध होने से झूठे हैं और जो वेद से विरुद्ध पुस्तकें हैं उनमें कही हुई मूर्तिपूजा भी अधर्मरूप है। मनुष्यों का ज्ञान जङ । की पूजा से नहीं बढ़ सकता किन्तु जो कुछ ज्ञान है वह भी नष्ट होजाता है इसलिये ज्ञानियों की सेवा मङ्ग से ज्ञान बढ़ता है पाषाणादि से नहीं। क्या पाषाणादि मूर्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी ला सकता है नहीं २ मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं, किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमे गिरकर चकनाचूर होजाता है पुनः उस खाई से निकल नहीं सकता किन्तु उसी में मर जाता है। हां छोटे धार्मिक विद्वानों में लेकर परम विद्वान् योगियों के संग से सद्विद्या और सत्यभाषणादि परमेश्वर की प्राप्ति की सीढ़ियां हैं। जैसे ऊपर घर में जाने की निःश्रेणी होती है किन्तु मूर्तिपूजा करते २ ज्ञानी तो कोई न हुआ प्रत्युत सब मूर्तिपूजक अज्ञानी रहकर मनुष्यजन्म व्यर्थ खोके बहुत २ से मर गये और जो अब हैं वो होंगे में भी मनुष्यजन्म के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्तिरूप फलों से विमुख होकर निरर्थ नष्ट हो जायंगे । मूर्तिपूजा ब्रह्म की प्राप्ति में स्थूल लक्षवत् नहीं किन्तु धार्मिक विद्वान् और सृष्टिविधा है इसको बढ़ाता २ ब्रह्म को भी पाता है और मूर्तिं गुडियों के खेलवत् नहीं किन्तु प्रथम अक्षराभ्यासे सुशिक्षा का होना गुड़ियों के खेलवत् ब्रह्म की प्राप्ति का साधन है सुनिये ! जब अच्छी शिक्षा और विद्या को प्राप्त होगा तब सच्चे स्वामी परमात्मा को भी प्राप्त हो जायगा । ( प्रश्न ) साकार में मन स्थिर होता और निराकार में स्थिर होना कठिन है इसलिये मूर्तिपूजा रहनी चाहिये । ( उत्तर) साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता, क्योंकि उसको मन झट ग्रहण करके उसी के एक २ अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है और निराकार परमात्मा के ग्रहण में यावत्सामर्थ्य मन अत्यन्त दौड़ता है तो भी अन्त नहीं पाता निरवयव होने से चचल भी नहीं रहता किन्तु उसी के गुण कर्म स्वभाव का विचार करता २ आनन्द में । मग्न होकर स्थिर हो जाता है और जो सरकार में स्थिर होता तो सव जगत का मन ।