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एकादशसमुल्लासः || वचनों से शैवादि संप्रदाय सिद्ध नहीं होते क्योंकि ‘‘रुद्र परमेश्वर, प्राणादि वायु, जीव, अग्नि आदि का नाम है जो क्रोधकर्ता रुद्र अर्थात् दुष्टो को रुलानेवाले परमात्मा को नमस्कार करना प्राण और जाठराग्नि को अन्न देना ( नम इति अन्ननाम-निर्ध० २ । ७) जो मंगलकारी सब संसार का अत्यन्त कल्याण करनेवाला है उस परमात्मा को नमस्कार करना चाहिये शिवस्य परमेश्वर स्यायं भक्तः शैव.” । * विष्णोः परमात्मनोऽयं भक्तो वैष्णव' । “गणपते सकलजगत्स्वामिनोऽयं सेवको गाणपत' । “भगवत्या वाण्या अय सेवक भागवत' । सूर्यस्य चराचरात्मनोऽयं सेवकः सौरः” ये सब रुद्र, शिव, विष्णु, गणपति, सूयदि परभेश्वर के और भगवती सत्यभाषणयुक्त वाणी का नाम है । इसमें विना समझे ऐसा झगड़ा मचाया है जैसे:-- एक किसी वैरागी के दो चेले थे वे प्रतिदिन गुरु के पग दावा करते थे एक ने दाहिने पर और दूसरे ने बायें पग की सेवा करनी बांट ली थी एक दिन ऐसा हुआ कि एक चेला कहीं बजार हाद को चला गया और दूसरा अपने सेव्य पर की सेवा कर रहा था इतने में गुरुजी ने करवट फेरा तो उसके पग पर दूसरे गुरुभाई का सेव्य पग पड़ा उसने ले दुडा पग पर धरमारा ! गुरु ने कहा कि अरे दुष्ट ! तू ने यह क्या किया ? चेला बोला कि मेरे सेव्य पग के ऊपर यह पग क्यो । चढा ? इतने में दूसरा चेली जो कि बजार हाट को गया था अपहुंचा वह भी अपने सेव्य पग की सेवा करने लगा देखा तो पग सूजा पड़ा है। बोला कि गुरुजी यह मेरे सेव्य पग में क्या हुआ ? गुरु ने सब वृत्तान्त सुना दिया वह भी मूर्ख ने बोला न चाला चुपचाप दण्डा उठा के बड़े बल से गुरु के दूसरे पग में मारा तो गुरु ने उच्चस्खर से पुकार मचाई तब दोनों चले दण्डा लेके पडे और गुरु के पगों को पीटने लगे तब तो बडा कोलाहल मचा और लोग सुन कर आये कहने लगे कि साधुजी क्या हुआ ? उनमें से किसी बुद्धिमान् पुरुप ने साधु को छुडा के पश्चात् उन मूर्ख चेलों को उपदेश किया कि देखो ये दोनों पग तुम्हारे गुरु के हैं उन दोनों की सेवा करने से उसी को सुख पहुंचता और दु:ख देने से भी उसी एक को दुःख होता है। | जैसे एक गुरु की सेवामें चेलाअों ने लीला की इसी प्रकार जो एक अखण्ड सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप परमात्मा के विष्णु रुद्रादि अनेक नाम हैं इन नाम का अर्थ जैसा कि प्रथम समुल्लास में प्रकाश कर आये हैं उसे सत्यार्थ को न जानकर शैव शा छ ।