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२८९ सत्यार्थप्रकाश: । थे । मनुष्यद प्रा वत्स थे क्य !के दूध, घी, बेल आtiदू पहुआ की बहुताx ईन से अन्न रस पुष्कल प्राप्त होते थे -जब से विदेशी सांसाहारी इस देश में आके गई आदि पशुओं के मारनेवाले मद्यपानी ज्यiवेकार हुए हैं तब से ऋसश. अय्याँ के दु ख की बढ़त होती जाती है क्योंकि

। नष्ट्र मूले नैव फल न पुपम् ॥ वृद्धचाणक्य अभ् १९ से १३ ॥ जब वृक्ष का मूल ही काट दिया जाय तो फल फूल कहां से हों ? { प्रश्न ) जो सभी अहिंसक होजायें तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जाये कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायं तुम्हारा पुरुषार्थ ही व्यर्थ होजाय १ ( उत्तर ) यहू राजपुरुषों का पू | कम ई व जी इनकारक पशु व मनुष्य हां उनका दण्ड देवं अोर प्राण भी वियुक्त कर दें । ( प्रश्रन ) फिर क्या उनका मांस फेंकटें ? (उत्तर) चहे हैं चाटू कुत्ते आदि मांसारियों को खिला द्व व जला दवे अथवा कई मांसाहारा खावे ता भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मां- साहारी होकर हिंसक हो सकता है जितना हिंसा और चोरी विश्वासघात छल कपट अहें से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है वह अभक्ष्य और अहिसा धदि | कम से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है जिन पदार्थों से स्वस्थ्य रोगनाश बुद्धिशत परामवृद्घि अर आयुशुद्धि हावे उन तण्डलादि गोधूम फल मूल कन्द दूध घ प्टिrदि पदार्थ का सेवन यथायोग्य पक मल कर के यथोचित समय पर मिता- | हार भोजन करना सब भक्ष्य जहाता हैजिसने पढ़ार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करनेवाले हैं उन २ का सर्वथा त्याग करना और जो २ जिस २के लिये विदित हैं उन २ पदार्थों का ग्रहण करना यह भी भक्ष्य है 1 (प्रश्न ) एक साथ खाने में कुछ दोप है वा नहीं ? ( उत्तर) दोप है, क्योंकि एक के साथ दूसरे का स्वभाव और प्रकृति नहीं मिलती जैसे कुप्ठी आदि के साथ खाने से अच्छे मनुष्य का भी रुधिर चिरागड़ जाता है वैसे मरे के साथ खाने में भी कुछ विगइ ही होता है थार न इसीजिये:- ! नोच्छिष्ट कस्यचिट्ठद्यान्नाद्यादेव तथान्तरा। न चबायो ईथन्नचोच्छिष्टः वचि बजे : महु० ॥ २.५६ ॥ क्रिी को अपना अठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के दो बाप नावे 1 में प्र-िथ में न करे 1ार न भोजन किये पश्चात हाथ मुख बोये विन कहां इधर (