पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२७४

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२६४ सत्याप्रकाशः ? 3 } होकर उसको सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है यही सुखविशेष वर्ग और विपयतृष्णा में फंसकर दु:खविशेष भोग करना नरक कहाता है। "स्व । सुख का नाम है ‘स्त्र: सुख गति यरिमन् स प:’ ‘‘विपरीतो खभोगते अतो ट: नरक इति’’ जो सांसारिक सुख है वह सामान्य स्वर्ग और जो परमेश्वर की प्राप्ति से अनद है बही विशेष स्वर्ग कहाता है । सब जीव स्वभाव से सुख प्राप्ति की इच्छा और टु ख का वि योग होना चाहते हैं परन्तु जब तक ध में नहीं करते और पाप नहीं छोड़ते त बत क ड न तो सुख क ों में जन और दु ख का छूटना न हो। क्योंकि जिस का कारण अथन मूल होता है वह नष्ट कभी नहीं होता जैसे:- छिन्ने मूले वृक्षो नश्यति तथा पाप क्षी ये दुःखें नश्यात । जैसे मूल कट जाने से वृक्ष नष्ट होता है वैसे पाप को छोड़ने से दुःख नष्ट होता है देखो मनुस्मृति में पाप और पुण्य की बहुत प्रकार की गतिः- मानसें मनसैबायपुपके शुभाsशु । वाचा बाचा कृत कमें कार्यानंव व कार्यकम् १ ॥ शरीरजेः कर्मक्षेपेयति स्थावर तां नरः । वर्कः पाक्षमृगतां मनरन्त्यजातिंत है। २ ॥ यह यक्ष गुणा दंद सकल्यनrतारउयत । स तदा तत्णप्रायं में करोति शरीरिणम् ॥ ३ ॥ सरवं ज्ञानें तमोझज्ञान रागदेष रजः स्मृतम् । एत व्यातिमदेतेयां सर्वभूताश्रित वपुः ॥ ४ ॥ तत्र यप्रीतिसंयुक्त किचिदात्मनि लक्ष५त् । प्रशान्तांसव शुद्धाभ सन्त्व तदुपधारपत् ॥ ५ ॥ यतु दुःखसमायुक्तमत्रातकरमामन' । तोSनिपं वियासतह हारि देहिनाभम् ॥ ६ ॥