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और (शम्) सकल ऐश्वर्यदायक वह (बृहस्पतिः) सबका अधिष्ठाता वह (शम् ) विद्याप्रद और (विष्णुः) जो सबमें व्यापक परमेश्वर है वह (नः) हमारा कल्याणकारक (भवतु) हो ॥

(वायो ते ब्रह्मणे नमोऽस्तु) (बृह बृहि वृद्धौ) इन धातुओ से "ब्रह्म" शब्द सिद्ध होता है । जो सबके ऊपर विराजमान सबसे बड़ा अनन्तबलयुक्त परमात्मा है उस ब्रह्म को हम नमस्कार करते हैं । हे परमेश्वर ! (त्वमेव प्रत्यक्षब्रह्मासि) आप ही अन्तर्यामिरूप से प्रत्यक्ष ब्रह्म हो (त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि) मैं आप ही को प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा क्योंकि आप सब जगह में व्याप्त होके सबको नित्य ही प्राप्त हैं ( ऋतं वदिष्यामि) जो आप की वेदस्थ यथार्थ श्राज्ञा है उसी का मैं सबके लिये उपदेश और आचरण भी करूंगा (सत्यं वदिष्यामि) सत्य बोलूं, सत्य मानूं और सत्य ही करूंगा (तन्मामवतु) सो आप मेरी रक्षा कीजिये (तद्वक्तारमवतु) सो आप मुझ आप्त सत्यवक्ता की रक्षा कीजिये कि जिससे आप की आज्ञा में मेरी बुद्धि स्थिर होकर विरुद्ध कभी न हो क्योंकि जो आपकी आज्ञा है वही धर्म और जो उससे विरुद्ध वही अधर्म है । (अवतु मामवतु वक्तारम्) यह दूसरी वार पाठ अधिकार्थ के लिये है जैसे “कश्चित् कञ्चित् प्रति वदति त्वं ग्राम गच्छ गच्छ” इसमें दो बार क्रिया के उच्चारण से तू शीघ्र ही ग्राम को आ ऐसा सिद्ध होता है ऐसे ही यहा कि आप मेरी अवश्य रक्षा करो अर्थात् धर्म से सुनिश्चित और अधर्म से घृणा सदा करू ऐसी कृपा मुझ पर कीजिये, मैं आपका बड़ा उपकार मानूंगा (“ओं शान्तिः शान्तिः शान्तिः”) इसमें तीन वार शान्तिपाठ का यह प्रयोजन है कि विविधताप अर्थात् इस संसार में तीन प्रकार के दुःख हैं एक “आध्यात्मिक” जो आत्मा शरीर में अविद्या, राग, द्वेष, मूर्खता और ज्वर पीडादि होते हैं। दूसरा “आधिभौतिक” जो शत्रु, व्याघ्र और सर्पादि से प्राप्त होता है। तीसरा “आधिदैविक” अर्थात् जो अतिवृष्टि, अतिशीत, अतिउष्णता मन और इन्द्रियों की अशान्ति से होता है । इन तीन प्रकार के क्लेशों से आप हम लोगों को दूर करके कल्याणकारक कर्मों में सदा प्रवृत्त रखिये क्योंकि आप ही कल्याणस्वरूप, सब संसार के कल्याणकर्ता और धार्मिक मुमुक्षुओं को कल्याण के दाता है । इसलिये आप स्वयं अपनी करुणा से सब जीवों के हृदय में प्रकाशित हूजिये कि जिससे सब जीव धर्म का आचरण और अधर्म को छोड़ के परमानन्द को प्राप्त हों और दुःखों से पृथक् रहै “सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च” इस यजुर्वेद के