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समसलस। १ ११ इत्यादि कस्यायनाटिकृत प्रतिज्ञा सूत्रादि का अर्थ क्या करागे ? ( उत्तर के देखो

संदिता पुस्तक के प्रारम्भ अभ्याय की समाप्ति में वेद यदु स मतन से शब्द लिखा |

आता है और प्रताप के पुस्तक के अनरस्भ ा अध्याय की समाप्ति में कहीं नहीं। it iर निरु म: इयपि रिग गम भवति । इति ब्राह्मणप। नि० अय० ५ । ख० ३ ' है । छन्दोत्राह्मणानि च तद्वि यणि ॥ अष्टध्या० 31 २। ६६ ॥ इससे भी विदित स्पष्ट नेता हैं कि वद्यसभम अर ब्राह्मणव्याख्याआग है इसमें जो विशेष देखना चाहें तो मेरी बनाई ‘‘अरव नाभियभूमिका' में देख लय बतां आकर प्रम।णों से विरु द्ध होने से यह कात्यायन का वचन नहीं हो सकता ऐसा ही सिद्ध किया गया है क्योंकि जो माने तो वे सनसन कभी नहीं हो स न क्याकि त्राहाण पुरत का से बहुत से ऋषि महर्षि और राजद के इतिहास लिखे और इतिहास जाता हैं जिसका हो उसके जन्म के पश्चात् लिखा है वह अन्य । भी इसके जन्म के पश्चात् होता है वेदों में किसी का झातिहास नहीं किन्तु विशेप जिस २ शब्द से विद्या का बोध होये इस २ शब्द का प्रयोग किया है किसी ने मनुष्य की संज्ञा बा विशेष कथा का (प्रश्न) कितनी प्रसंग वेदों में नहीं ।वेदो की शाखा है ' ( उतर ) ग्यार सौ सताइस ( प्रश्न ) शाखा क्या कहती हैं ? उठ तर ) व्याख्यान कां, 1 शाबा कहते हैं, ( प्रश्न ) संसार में विद्वान के अवयवभूत ! वद विभाग को शकस्बा सनते हैं ? (उत्तर ) तनिकसा विचार करें तो ठीक, क्योंकि । जितनी शाखा आश्वलायन आदि ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं और सत्र द व सItता । जेस परमेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है चारों वेदो को परवकृत मानते हैं । वैसे आश्वलायनी शाखा को उ म २ मानते हैं और आदि ऋषिक्त सब शाखा 8 .प्रतीक घर के व्याख्धा जैसे तैत्तिरीय शाखा ‘‘ षेत्खोजें रति' म मन्त्रा कf करते हैं, में। इस्यादि प्रतीकें धर के व्याख्यान किया है और वेसहितों में किसी की प्रतीक नहीं धरी इसलिये मूल परमेश्वरक्त चारों वेद वृक्ष औौर अश्वलायनी आiदें सव शाखा मुनिकृत है परमेश्वरकृत नहीं जो विषय व्याख्या ऋषि इस की विशेष ' देखना में देख लेवें चाहें वे ऋग्वेदिभाश्यभूमिका जैसे माता पिता अपने सन्तान पर कपाIष्ट कर ढन्नति चाहते हैं ही ने सब मनुष् पर कृपा करके वैसे परमात्मा - " - ४ - २० - ' A