पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२१७

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-डे) सप्तमझुलस। २० ५ AC । य आत्मनि तिष्ठनात्मनोब्तरोयमात्मा न वेद यस्थात्मा श रंरम् । आत्मनोन्तरोयनयति रल त आचामान्तर्याम्यमृतः ॥ । दारण्यक का वचन है । महर्षि याज्ञवल्क्य अपनी ल्ली मैत्रेयी से कहते यहू है कि हे मैनेयि ! जो परमेश्वर आरमा अर्थात् जीव में स्थित और जीवात्मा चे भिन्न है जिसको सूड जीवात्मा नहीं जानता कि वह परमात्मा मेरे में व्यापक है। जिस परमेश्वर का जीवात्मा शरीर अर्थात् जैसे शरीर से जीव है वैसे ही रहता जीव मे परमेश्वर व्यापक है जीवात्मा से भिन्न रहकर जय के पाप पुण्यों का साक्षी } होकर उनके फल जीवो को देकर नियम में रखता है वही आविनाशी स्वरूप तेरा भी आन्तय्यमी आत्मा अर्थात् तेरे भीतर व्यापक है उसको तू जान ने क्या कोई इस्यादि बचमो का अर्थ दूसरा कर सकता है ? ‘‘अयमानुस । ऋह्म' अथात् समा - धिदशा मे जब योगी को परमेश्वर प्रत्यक्ष होता है तब वह कहता है कि यह जो मेरे में व्यापक है वही ब्रह्मा सर्वत्र व्यापक है इसलिये जो आजकल के वेदान्त जीव ब्रह्म की एकता करते हैं वे बेदान्तशाब को नहीं जानते ( प्रश्न ): अनेन जीवेनानासुप्रविश्य नामरूप व्याकरखाणीति & : छां० श० ६। रॉ० ३ । ° २ ॥ तदुष्का तदेवाप्राविशत। तैत्तिरीय॰ ब्रह्मानं, अनु० ६ : ॥ परमेश्वर कहता है कि में जगत् और शरीर को रचकर जगत् में व्यापक और जीवरूप होके शरीर में प्रविष्ट होता हुआ नाम और रूप की व्याख्या क% 1 परमेश्र ने उस जगत् और शरीर को बना कर उस में बवहीं प्रविष्ट हुथा इत्यादि त्ति का अर्थ दूसरा कैसे कर सकोगे ? ( उत्तर ) जो तुम पद्य पदार्थ ऑर वाक्याय जानते तो ऐसा अनर्थ कभी न करते ! क्योंकि यह ममझो एक शूर ! एंसा प्रवा दूसरा अनुप्रवेश अत् पश्चात् प्रवेश कहता है परमेश्वर शरीर में चिट यों के साथ अमुप्रविष्ट के समान होकर वेद द्वारा सघ नाम रूप आदि विदा ; f f फट करता है और शरीर में जवि को प्रवेश करा आप जीव के भीतर प्रउआउट हो' हा है जो तुम अन्नु श६६ का वयं जानते तो वस। iदंपती 'ए4 क ी में इन ।