पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२१६

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= 9 # ा । --- - -- सार्थक ! २०४ 4 - - ब्रह्म का सहृचारी जीव है 1 इससे जीव और बूझ एक नही जैसे कोई केसी ये 1 ' कहै कि म अर यह एक है अथन अविरोधी हैं वैसे जो जीव समाधिस्थ परमेश्वर में प्रेमवह होकर निमग्न होता है वह कह सकता है मैं और वह एक अर्थात् । कि आविरोधी एक अवकाशस्थ हैं । जो जव गुण कर्म स्वभाव के अनुकूल परमेश्वर के मैं गुण कर्म स्वभाव करता है वही से ब्रह्मा के सकता अपने साथ एकता साधन्य कद है न ( प्रश्न ) अच्छा तो इसका अर्थ कैसा करोगे ? ( तत् ) ब्रह्मा ( त्व ) तू जीव ; ( असि है ' हे जीव ' ( एवम् ) तू ( तत् ) वह ब्रह्मा ( आसि ) है ( उत्तर ) ) ' तुम तत् शब्द से क्या लेते हो, “श्रह्म’' वह पद की अनुत्ति कहये लायं ? सदेव सोन्येदमन आासीदेकमेवातिीय ब्रह्म ॥ इस पूर्व वाक्य से तुम ने इस छान्दोग्य उपनिषद् का दर्शन भी नहीं किया जो वह देखी होती तो वह ब्रह्मा शब्द का पाठ ही नही है ऐसा झूठ क्यों कहते } किन्तु छान्दोग्य मे तां ' लदव स्वय असदकावबताय छ० प्र० ई / ख० २ । लें० १ ॥ ऐसा पाठ है बहा ब्रह्म शब्द नही । ( प्रश्न ) तो आप तछब्द से क्या लेते है १ ( उतर ) स य एणिमा ) ऐतदात्म्यमिक्७ सव तरसत्यर्ड स आत्म तत्वनसि श्वेतकेत इति ॥ छान्दो॰ प्र० ६। ख० ८ } ० ६ से ७ ? ब परमात्मा जनसे योग्य है जो यह अत्यन्त सूक्ष्म और इस सब जगढ़ और जब कई आम है यही सनस्वरूप और अपना आत्मा आप ही है। हे त पर तदामकस्तदन्तयामी स्वमसि ॥ उस परमात्मा अन्तर्याम से तू युक्त हैं यही अर्थ उपनिपढ़ो से आविरुद्ध है क्योंकिः-