पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/२०७

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सप्तमसंयुछठ! १९५ सHधिनिधूमलस्य चेतसो निवेशितस्यामनि यक्रमुख - _ भवं । न शक्रय बपायर गिरा तदा स्वयन्तदन्तः

करणेन टह्यते ॥

यह अपनिषद् का बचन है-iज म पुष के समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट 1 ह्वांगय हैं आपस्थ होकर परमात्मा में चित्त जि सने लगाया है उस को जो पर- ( मात्मा के योग का सुब होता है व वाणी से कहा नहीं जा स का +योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्त:करण म ग्रहण करत , है । उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है अट्रांग योग स परमात्मा के समीपस्थ हानऔर उसको

  • सर्वव्यापी सर्वान्तर्यामीरूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो २ काम करना होता है।

वर्षा २ सब करना चाहिये अथन भ_ तsiहसास्यास्तय हो च्यापांहा यम: । योगशा० साधनेपाद । ० ३० ॥ इत्यादि सूत्र पानजलोगशrत्र के हैंजो उपासना का आरम्भ करना चाहे । ! उसके लिये यही आरम्भ है कि बड़ किसी से वैर न रखेसर्ववr सत्र से प्रीति करे, सत्य बोले, मिथ्या कभी न बोले, चोरी न करे, सस्य व्यवहार करे, जिते न्द्रिय हो, लम्पट न हो और निरभिम।नी हो, अभिमन कभी न करे, ये पांच प्रकार के यम भिल के पासना योग का प्रथम अल है । शौचसन्तोषत: स्यायेश्वरप्रणधनानि नियमाः ॥ योगश० साधनपदे। सू० ३२ । राग द्वेष छोड़ भीतर और जलादि से बाहर पवित्र रहै, धर्म से पुरुषार्थ करने से लाभ में न प्रसन्नता और हानि से न असन्नता करे प्रसन्न होकर आलस्य छोड़ सदा पुरुषार्थ किया करे, सदा सुख दुःखों का सहन और में ही का अनुष्ठान कर अधर्म का नहींसर्वद सत्य शाल को पढ पढ़ने सत्पुरुषों का सा न रे और “ओो ३’’ इस एक परमात्मा के नाम के अर्थ विचार कर नित्यप्रति ज५ कि या करेअपने आत्मा को परमेश्वर की आज्ञानुकूल समर्पित कर देवे1 इन पाच प्रकार के निय मों को मिल।