पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१७७

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समु: PM १ ६५ का मेल कहाता है ॥ ३ ॥ (विपढ़ ) का सद्धि के लिये उचित समय वा अ चित समय में स्खय किया वा मित्र के अपराध करनेवाले शत्रु के साथ विरोध दो । प्रकार से करना चाहिये 11 ४ 1 ॥ ( यान ) अकस्मात् कोई कार्य प्राप्त होने में एककf व मित्र के साथ मिलके शत्रु की ओर जाना यह दो प्रकार का गमन क- ाता है 1 ५ ॥ स्वयं किसी प्रकार क्रम से क्षीण हो जाय अर्थात् निर्बल होजाय अथवा मित्र के रोकने से अपने स्थान में बैठ रहना यद दो प्रकार का आसन क- हता है ॥ ६ ॥ कार्यसिद्धि के लिये सेनापति और सेना के दो विभाग करके विजय करना दो प्रकार का वैध कहाता है ॥ ७ ॥ एक किसी अर्थ की सिद्धि के लिये 1 किसी बलवान् राजा व किसी महात्मा का शरण लेना जिससे शत्रु से पीडित न | हो दो प्रकार का आश्रय लेना कहता है : ८ जब यह जान ले कि इस समय 11 युद्ध करने से थोड़ी पीड़ा प्राप्त होगी और पश्चात् करने से अपनी वृद्धि और विजय अवश्य होगा तब शत्रु से मेल करके उचित समय तक धीरज करे ॥ ९ ।। जब अ- पनी सब प्रजा वा सेना अत्यन्त प्रसन्न उन्नतिशील और श्रेष्ठ जाने, वैसे अपने को भी सम तभी शत्रु से विमझ ( युद्ध ) कर लेने ॥ १० ॥ जब अपने बल अर्थात् सेना को ये र पुष्यंयुक्त प्रसन्न भाव से जान आर शत्रु का बल अपने से विप रीत निर्बल होजावे तब शत्रु की ओर युद्ध करने के लिये जाये ॥ १५ ॥ जब सेना वल वाहन से क्षीण होजाय तब शत्रुओं को धीरे २ प्रयत्न से शान्त करता हुआ । अपने स्थान में बैठा रहै ॥ १२ 1 जन राजा शत्रु को अत्यन्त बलवार जाने तक द्विगुण व दो प्रकार की सेना करके अपना कार्य सिद्ध करे !॥ १३ ॥ जब आप सम लेखे कि अब शीघ्र शत्रुओं की चढ़ई मुझ पर होगी तभी किसी धार्मिक बल

वान् राजा का आश्रय शीघ्र ले लेवे । ॥ १४ ॥ जो प्रजा और अपनी सेना शत्र के

बल का निर्वाह करे अर्थात् रोके उसकी सेवा सब यत्नों से गुरु के सदृश नित्य किया - - ५ में करे !: ११ ॥ जिसका आश्रय लेने व पुरुष कमरे में दोष देखे तो वहां भी अच्छे प्रकार युद्ध ही को निःशंक होकर करे ॥ १६ ॥ जो धार्मिक राजा हो उससे विरोध कभी न करे किन्तु उससे सदा से रक्खे और जो दुष्ट प्रबल हो उसी के जीतने के लिये पूत प्रयोग करना उचित है !। सपास्तथा कुनीतिज्ञः थिवीपतिः । यथास्याभ्यधिका न स्युमित्रोदासीनशत्रवः ॥ १ ॥