पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१४१

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name पश्चमसमुदासः ॥ । जो दुगचार से पृथक नहीं, जिसको शान्ति नहीं, जिसका आत्मा योगी नहीं और जिसका मन शान्त नहीं है वह संन्यास ले के भी प्रज्ञान से परमात्मा को प्राप्त नहीं होता इसलिये:-- यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञान आत्मनि । ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥ कठ० । वल्ली ३ । सं० १३ ॥ संन्यासी बुद्धिमान वाणी और मन को अधर्म से रोक के उनको ज्ञान और | आत्मा में लगावे और उम ज्ञानस्वात्मा को परमात्मा में लगावे और उस विज्ञान को शान्तस्वरूप आत्मा मे स्थिर करे ॥ परीक्ष्य लोकान कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन। तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥ मुण्ड० । खं० २ । मं० १२ ॥ सव लौकिक भोगों को कर्म से सचित हुए देखकर ब्राह्मण अर्थात् संन्यासी वैराग्य को प्राप्त होवे क्योंकि अकृत अर्थान न किया हुआ परमात्मा कृत अर्थात केवल कर्म से प्राप्त नहीं होता इसलिये कुळ अर्पण के अर्थ हाथ में ले के वेदवित् और परमेश्वर को जाननेवाले गुरु के पास विज्ञान के लिये जावे, जाकं सव स- न्देहों की निवृत्ति करे परन्तु सदा इनका मग छोड़ देवे कि जो -- अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमा- नाः । जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना य. | थान्धाः ॥ १ ॥ अविद्यायां बहुधा वर्तमाना वयं कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति बालाः । यत्कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात् ते.. नानुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते ॥ २ ॥ मुण्ड० । खं० २ ।। मं०८ ॥