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से एक वर्ष जा रही हैं । के १ १ सत्यार्थप्रकाशी!


गन्ना

- t है। बा हविलजो साक और हिंसाकारक द्रव्यों को छोड के भोजन करनेहारे हैं ! 3, 1 वे विक्रूज ‘‘आयं ज्ञाडु प्राप्तृ व योग्यं रक्षान्त वा पियन्ति र छाज्यपा: जो जानने ? के योग्य वस्तु के रक्षक और झुत दुग्धादि खाने और पीनेहरे हों वे आज्यपा ‘‘शोभनः ? जालो विद्यते येषान्ले मुकालिन जिनका अच्छा धर्म करने का सुखरूप समय हो वे सुंकालिन् ‘ये दुटान् यच्छन्ति निगृहणन्दि ते या न्यायाधीश:' जो दुष्टों को दण्ड और श्रेष्ठों का पालन करनेहारे न्यायकारी हों वे यम ‘‘य पाति स पिता जो 3 सन्तानों का अन्न और सत्कार से रक्षक व वा जनक हो वह पिता ॥ ‘पिः पिता पितामह पितामहस्य पिता प्रपितामह.” जो पिता का पिता हो वह पितामह और जो पितामह का पिता हो वह प्रपितामह ‘‘या मानयति स। माता' जो अन्न और सत्कारों से सन्तानों का मान्य करे बइ माता ‘‘या पितुर्माता सता पितामही पितामहस्य माता प्रपितामढ़ी' जो पिता की माता हो वह पितामही और पितामह की माता हो वह ॥ प्रपितामह । अपनी बी तथा भगिनी सम्पन्धी और एक गोत्र के तथा अन्य कोई ! भद्र पुरुष बा वैद्ध हों उन सबको अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न वन सुन्दर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात् जिस २ कर्म से उनका आत्म सुप्त और शरीर स्वस्थ रह उस २ कर्म से प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा करनी बहू श्रद्ध और तर्पण कहाता है । । चथा वैश्वदेव-अथान जब भोजन सिद्ध हो तब जो कुछ भोजनायें बने उसमें ; से खट्टा लवणान्न और क्षार को छोड़ के द्युत संयुक अन्न लेकर चूल्हे से अ।ि अलग धर निम्नलिखित सन्त्रों से आहुति और भाग करे ॥ वैश्वदेवस्य सिद्धस्य हेडनौ विधिपूर्व कम् । आभ्यः कुय्यदेवताभ्यो ब्राह्मणो होमवह ॥ मनु० ३ ८४ ॥ जो कुछ में हो अर्थ उसी पाकशाला भोजनार्थ सिद्ध उसका दिव्य गुणों के पकाग्नि में निम्नलिखित मन्त्रों से हम करे: विधिपूर्वे नित्य ओं मग्नये स्वाहा । सोमाय स्वाहा । अग्नीषोमाभ्यां : स्वाहा । विश्वेभ्य देवेयः स्वाहा । धन्वन्तरये स्वाहा। छहै स्वाहा । अनुमत् स्वाहा । प्रजापतये स्वाहा । सह यात्रावृथिवीयां स्वाहा । स्चिष्टते स्वाहा ॥